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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चैतन्य महाप्रभु और श्रीकृष्ण भक्ति
संसार के मानव समुदाय में ऐसा कौन है जो आकर्षण के अस्तित्व को स्वीकार न करता हो और सुख की इच्छा न करता हो ? ‘यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्, ऋणंकृत्वा घृतंपिबेत्’ अर्थात जब तक जीओ, तब तक सुख से जीओ- ऋण करो और घी पीओ- इस सिद्धान्त के मानने वाले नास्तिक शिरोमणि चार्वाक से लेकर चीन के इयांचू, ग्रीक के लूसियस, मध्य एशिया के सर्डेनेप्लस्, रोम के लुक्रिसिय पर्यन्त सभी भोगवादी इन्द्रिया विषयों की ओर आकर्षित हो सर्वदा सुख की इच्छा करते रहे। माध्यमिक, योगाचार, सैद्धान्तिक और वैभाषिक- ये चारों प्रकार के बौद्ध, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों प्रकार के जैन, रसेश्वर, प्रत्यभिज्ञ, पाणिनी, नकुलीश, पाशुपत आदि सभी मतवादी आकर्षण सत्तायुक्त निर्वृति-सुख की इच्छा करते रहे। सांख्याचार्य महर्शि कपिल, योग प्रवर्तक महर्षि पतंजलि, विशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद, न्याय दर्शन-निर्माता महर्षि गौतम, पूर्वमी मांसाकार महर्षि जैमिनी आदि सभी दार्शनिकगण अत्यन्त दुःखी निवृत्तिपूर्वक आकर्षण सत्तावान, सुख की सदैव अभिलाषा करते रहे। इनके अतिरिक्त प्लेटो, अरिष्टाटिल, डिडेरो, लामेट्री, कामत, मिल, लुइस, येन, कारलाइल, वेन्थम, कोम, हिलियक, बैरडला, फेरिस, टिण्डल, बुकनर, मालेस्कोट, हिराक्लिटिस, एमपेडक्लिटिस, एनक्सेगोरस, प्लटिनस, स्पिज्जा, एडस्मिथ, स्टूअर्ट, हेमिल्टन, मालटेयर, डिडेरट, कैन्ट, हेगल, ग्रीन आदि पाश्चात्य दार्शनिक वृन्द भी आकर्षण सत्तायुक्त सुख की खोज में ही निरन्तर लगे रहे। एक प्रकार से ये सभी श्री कृष्ण-भक्ति भक्त्या भासमात्र थी। क्योंकि इन सब की भक्ति-विषयक प्रवत्ति भोगोन्मुखी थी काम-वासना से शून्य नहीं थी। भुक्ति मुक्ति स्पृहा का नाम ही तो काम है। भक्ति इस आभास से श्री कृष्ण को सन्तोष नहीं होता। श्री कृष्ण जीव के विमल प्रेम के लिप्सु हैं। विमल प्रेम का मगन्ध से सर्वथा शून्य होता है। यह विशुद्धा भक्ति के प्रकाश से प्राप्त होता है। विशुद्धा भक्ति का प्रकाश प्राकृतिक जगत में श्री कृष्ण-कृपा बिना असम्भव है। श्री कृष्ण-कृपा परम स्वतन्त्र है, वह किसी सुकृत का फल नहीं है। इसी से परम करूणामय श्रीकृष्ण ने कलि-कलुषित जीवों पर निर्हैतुक कृपा कर, निज प्रेम प्रदान करने के निमित्त अब से 446 वर्ष पूर्व भारत के पूर्वाकाश रूप श्रीनव द्वीप-धाम में श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र रूप से उदित हो स्वयं भक्ति चन्द्रिका का प्रकाश किया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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