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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चैतन्य महाप्रभु और श्रीकृष्ण भक्ति
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भक्त भाव अंगीकार कर निजाचरण द्वारा जगदत जीवों को भक्ति भाव अंगीकार कर निजाचरण द्वारा जगदत जीवों को भक्ति-साधना की महान शिक्षा दी थी। भक्ति भाव विभोर, प्रेमानन्द निमग्न महाप्रभु के वचन चन्द्र से समय-समय पर जो वाक्यमृत निर्गलित हुआ हैं, हमको उसी के सम्यक पान से भक्ति-रस का पूर्णास्वादन प्राप्त होता है। ये वाक्य आठ श्लोकों के रूप में संगृहित हुए हैं, जो शिक्षाष्टक के नाम से प्रसिद्ध है। इनमें साधन-भक्ति की महिमा, भक्ति-साधन की सुलभता, भक्ति-साधना की रीति, भक्ति की वांछा, भक्त का स्वरूप, भक्ति-सिद्धि का बाह्म-लक्षण, भक्ति-सिद्धि का अन्तरंग-लक्षण, प्रेम का स्वरूप आदि सिद्धान्तों का संक्षिप्त, अथक गम्भीर वर्णन है। श्रीमन्महाप्रभु के सिद्धान्त में भक्ति-साधन साध्य नहीं, किन्तु स्वयं सिद्ध है। जिस प्रकार ज्ञान, योग, कर्म आदि के अनुष्ठान में साधन-साध्य पृथक-पृथक होते हैं और साधन अपना फल उत्पन्न कर समाप्त हो जाता है; भक्ति के अनुष्ठान में इस प्रकार नहीं होता, इसमे साधन ही साध्य का रूप धारण कर लेता है। केवल अवस्था-भेद-मात्र है। साधन काल में जो भक्ति क्रियात्मि का होती है, वही सिद्धावस्था में भावात्मिका हो जाती है। क्रियात्मिका साधन-भक्ति दो प्रकार की होती है- एक वैधी, दूसरी रागानुगा। इन दोनों का क्रिया-कलाप तो समान ही होता है। केवल प्रवत्ति में भेद होता है। वैधी साधन-भक्ति में मनुष्य की प्रवत्ति परतः अर्थात शास्त्र की प्रेरणा से होती है और रागानुगा साधन-भक्ति मे वह अनुराग वश स्वयं होती है। भक्ति-शास्त्र में इस साधन-भक्ति के अनेक अंग कहे गये हैं, उनमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन- ये नौ प्रधान हैं। इनमे श्रवण, कीर्तन ये दो श्रेष्ठ हैं। इन दोनों में भी कीर्तन सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि इसमें श्रवण, स्मरण आदि अन्य अंगों का साधन स्वयं हो जाता है। संकीर्तन में सबसे अधिक विशेषता यह है कि अन्य साधनों द्वारा मनुष्य स्वयं तो लाभ उठा सकता है, परन्तु दूसरों का कोई उपकार नहीं कर सकता। संकीर्तन से लता-वृक्ष, कीट-पतंग, पशु-पक्षी पर्यन्त का उद्धार होता है, क्योंकि इनमें स्वयं कीर्तन करने की वाक शक्ति न होने पर भी, श्रवण-शक्ति विद्यमान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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