कृष्णांक
गीता के वक्ता श्रीकृष्ण
सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण ने भगवती श्रुति तथा गोरूप उपनिषदों को दुहकर वत्स अर्जुन को जो गीतारूप ‘दुग्धामृत’ पिलाया उससे धर्म-संकट में पड़कर निर्जीव बने हुए अर्जुन के शरीर में जीवन आ गया और उसे अपना कर्तव्य मालूम हो गया। उसने धर्म-राज्य की स्थापना की। भगवान के उपदेश से जब अर्जुन का सारा अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया, हृदय के सारे विकार कपूर की तरह उड़ गये, कर्म-ज्ञान-भक्ति का मर्म मालूम हो गया तब उससे भगवान ने पूछा कि ‘अर्जुन, बतलाओ, अज्ञान से पैदा हुआ तुम्हारा मोह अब भी नष्ट हुआ या नहीं ?’ इस पर प्रसन्न होकर अर्जुन ने कहा– नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । अर्थात हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। या भी बिलकुल स्वाभाविक। जहाँ स्वयं भगवान ही धर्मोपदेष्टा हों वहाँ फिर मोह आदि विकार नष्ट हुए बिना कैसे रह सकते हैं ? और आज भी जो कोई अर्जुन-जैसी भक्ति को लेकर इस भगवद्गीता को पढे़गा, तो उसके आन्तरिक विकार कभी टिक नहीं सकते। यही बात है कि संसारभर में इस ग्रन्थ का इतना अधिक आदर हुआ है। संसार की शायद ही कोई भाषा होगी जिसमें इसका अनुवाद न हुआ हो। प्रत्येक देश और प्रत्येक फिरके के लोग इसे मान देते हैं। भगवान ने अर्जुन को निमित्त मानकर अपनी प्राप्ति का मार्ग मानव जाति को दिखला दिया। उस महामार्ग में तीन सीढियां हैं– कर्म, ज्ञान और भक्ति। इन तीनों सीढियों की अपनी-अपनी विशेषता है। भगवान ने जिस प्रकार का कर्म करने को कहा और जिस प्रकार से करने को कहा, इसका अनुसरण जो कोई करता है वह धन्य है। उसके समस्त संशय नष्ट हो जाते हैं। कर्म की मीमांसा करते हुए उन्होंने बतलाया कि कर्म कोई बुरी चीज नहीं है, संसार ही कर्ममय है, इसलिये कर्म अवश्य करना चाहिये, पर कर्तव्य-कर्म करना चाहिये। शास्त्र-विहित स्वकर्म करना चाहिये। इससे भिन्न विकर्म है जो गर्हित है– त्याज्य है। स्वकर्म या शुभ कर्तव्यकर्म करने वाले की कभी दुर्गति नहीं हो सकती – |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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