कृष्णांक
श्री श्रीराधातत्त्व
चारों वेदों में परमतत्व विष्णु को ही माना है। उपनिषद में कहा है –‘विष्णोरशितं सर्वे देवा अश्नन्ति विष्णो: पीतं पिबन्ति विष्णो: घ्रातं जिघ्रन्ति’ इत्यादि-इत्यादि। समस्त तत्वों का समावेश विष्णु-तत्व के ही अन्तर्गत हो जाता है। इस सम्पूर्ण चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड को व्याप्त करके एकमात्र विष्णु ही स्थित हैं। ब्रह्माण्ड को व्याप्त करके एकमात्र विष्णु ही स्थित हैं। ब्रह्माण्ड के बाहर और भीतर सब ओर विष्णु ही व्याप्त हैं। इन विष्णु भगवान के अनेक रूप हैं, जिनमें निर्गुण और सगुण ये दो प्रधान हैं। भगवान के चार अंश हैं, जिनमें केवल एक ही से सकल ब्रह्माण्ड व्याप्त है। उसको भगवान का प्रकृति-पुरुषात्मक स्वरूप कहते हैं। इसी के विषय में श्रुति भगवती कहती हैं – गीता में भी कहा है – यही भगवान का सगुण रूप है। इसी के रज, सत्व, और तम इन तीन गुणों के आश्रय से इसकी तीन मूर्तियां हैं, जो कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव कहलाती हैं। ये क्रमश: संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में भगवान की ये तीनों मूर्तियां विराजमान हैं। इन्हीं की भाँति प्रत्येक ब्रह्माण्ड में उनका निर्गुण रूप भी है, जिसे श्रुति और स्मृतियों में ‘अक्षर-ब्रह्म’ कहकर वर्णन किया गया है। ज्ञानियों का लय इस अक्षर-ब्रह्म में ही होता है, यथा– ‘अत्रैव प्राणा विलीयन्ते नोत्क्रामन्ते’। उपनिषद विधि के अनुसार उपासना करने वाले उपासकों की गति ब्रह्मलोक पर्यन्त है। वे ब्रह्मा के मोक्ष होने तक वहाँ रहते हैं और फिर ब्रह्मा के साथ ही उनका भी अक्षर-ब्रह्म में लय हो जाता है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में विष्णु भगवान के और भी अनेक रूप हैं, जिनका वर्णन शास्त्रों में ठौर-ठौर आया है। जैसे श्वेत द्वीप निवासी, शेषशायी उपेन्द्र और नर-नारायणादि। इनके अतिरिक्त त्रिपाद्विभूति विष्णु का वर्णन इस प्रकार है– सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के बाहर चिदाकाश में उनके अनन्त लोक हैं। पुराणों में जितने अवतारों का वर्णन हुआ है, वे सब परव्योम के लोकों से ही उतरे हैं। इनका त्रिपाद्विभूति नारायणोपनिषद में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। उन लोकों में प्रकृति का सम्बन्ध नहीं है, वहाँ माया का लेश भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यजुर्वेद 31। 3
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