श्रीकृष्णांक
श्रीराम-कृष्ण का ऐक्य
वैष्णवाचार्यों एवं प्राचीन महर्षियों ने सभी भगवदवतारों का अभेद माना है। श्रीरामोपासक या श्रीरामनंदीय वैष्णव, रामोपासक होते हुए भी चारों धामों की यात्रा करते और श्रीमथुरा, वृन्दावन, द्वारकापुरी आदि तीर्थों में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कर कृतार्थ ही होते देखे सुने गये हैं। वैष्णवाचार्य अनन्त श्रीस्वामी रामानन्दजी महाराज, श्रीपीपाजी, श्रीअल्हकोल्हजी आदि अनेक रामोपासक सन्त इसके उदाहरण हैं। श्रीस्वामी अग्रदासजी के पद के द्वारा श्रीनाभास्वामीजी ने चौबीसों अवतारों की वन्दना से मंगलाचरण किया है, जिसमें (गलता गादी के प्रसिद्ध महात्मा) श्रीअग्रदासजी चौबीसों अवतारों से यह प्रार्थना करते हैं कि अपना चरण कमल हमारे हृदय में धरिये- जय जय मीन बराह कमठ नरहरि बलि बावन । श्रीप्रियादासजी महाराज इस छप्पय की टीका करते हुए लिखते हैं कि सभी अवतार नित्य हैं और सभी ध्यान करने से ध्यान करने वाले के चित्त में प्रकाश करते हैं- जिते अवतार सुखसागर ना पारावार, स्मरण रहे कि अग्रस्वामी रामानन्य थे और प्रियादासजी श्रीकृष्णोपासक थे। दोनों का मत एक है। श्रीमद्स्वामी तुलसीदासजी- जो इस कठिन तिमिराच्छन्न कलिकाल में सनातन-धर्म के सत्पथ-प्रदर्शक ही हैं- राम, कृष्ण, नारायण, वराहभगवान, मत्स्य-भगवान, वामन और नृसिंह भगवान आदि में अभेद मानते हैं और उनका यही उपदेश समस्त जगत के प्रति है। उन्होंने सब अवतारों को अपने इष्टदेव का ही अवतार बताया है। लंकाकाण्ड के ‘मानस-पीयूष’ नाम तिलक में इस विषय पर कुछ लेख दिया जायेगा, जिसमें विस्तृत व्याख्या की आशा है। श्रीगोस्वामीजी महाराज के वचन हैं- तुम्ह सम रूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी ।। लं. 109
इतना नहीं नहीं, उनकी उदारता इससे भी बढ़ी-चढ़ी है। उन्होंने अनन्य रामोपासक होते हुए भी अपने हृदय में श्रीनन्दकुमार और श्रीक्षीरशायी भगवान को बसाया है। यह उनके इन पदों से सिद्ध है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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