श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नारदकृत राधा-स्तवनएक समय नारदजी यह जानकर कि ‘भगवान श्रीकृष्ण व्रज में प्रकट हुए हैं’ वीणा बजाते हुए गोकुल पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने नन्दजी के गृह में बालक का स्वाँग बनाये हुए महायोगीश्वर दिव्य-दर्शन भगवान अच्युत के दर्शन किये। वे स्वर्ण के पलंग पर, जिस पर कोमल श्वेत वस्त्र बिछे थे, सो रहे थे और प्रसन्नता के साथ प्रेमविह्वल हुई गोपबालिकाएँ उन्हें निहार रही थीं। उनका शरीर सुकुमार था; जैसे वे स्वयं भोले थे। वैसी ही उनकी चितवन भी बड़ी भोली-भाली थी। काली-काली घुँघराली अलकें भूमि को छू रही थीं। वे बीच-बीच में थोड़ा-सा हँस देते थे, जिससे दो-एक दाँत झलक पड़ते थे। उनकी छवि से गृह का मध्यभाग सब ओर से उद्भासित हो रहा था। उन्हें नग्न बालरूप में देखकर नारदजी को बहुत ही हर्ष हुआ। उन्होंने नन्दजी से कहा- ‘तुम्हारे पुत्र के अतुलनीय प्रभाव को, जो नारायण के भक्तों का परम दुर्लभ जीवन है, इस जगत में कोई नहीं जानता। शिव, ब्रह्मा आदि देवता भी इस विचित्र बालक में निरन्तर अनुराग रखना चाहते हैं। इसका चरित्र सभी के लिये आनन्ददायी है। अचिन्त्य प्रभावशाली तुम्हारे शिशु में स्नेह रखते हुए जो लोग इसके पुण्य-चरित्र का सहर्ष गान, श्रवण तथा अभिनन्दन करेंगे, उन्हें कभी भव-बाधा न होगी। गोपवर! तुम परलोक की इच्छा छोड़ दो और अनन्यभाव से इस दिव्य बालक में अहैतुक प्रेम करो।’ यह कहकर मुनिवर नारद नन्दभवन से निकले। नन्द ने भी विष्णु-बुद्धि से मुनि को प्रणाम करके उन्हें बिदा दी। इसके बाद महाभागवत नारदजी यह विचारने लगे - ‘भगवान की कान्ता लक्ष्मीदेवी भी अपने पति नारायण के अवतीर्ण होने पर उनके विहारार्थ गोपीरूप धारण करके कहीं अवश्य ही अवतीर्ण हुई होंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। अतः व्रजवासियों के घरों में उन्हें खोजना चाहिये।’ ऐसा विचारकर मुनिवर व्रजवासियों के घरों पर अतिथिरूप में जा-जाकर उनके द्वारा विष्णु-बुद्धि से पूजित होने लगे। उन्होंने भी गोपों का नन्दनन्दन में उत्कृष्ट प्रेम देखकर मन-ही-मन सबको प्रणाम किया। तदनन्तर वे नन्द के मित्र महात्मा भानु के घर पर गये। उन्होंने इनकी विधिवत् पूजा की। तब महामना नारदजी ने उनसे पूछा- ‘साधो! तुम अपनी धार्मिकता के कारण विख्यात हो। क्या तुम्हें कोई सुयोग्य पुत्र अथवा सुलक्षणा कन्या है, जिससे तुम्हारी कीर्ति समस्त लोकों को व्याप्त कर सके?’ मुनिवर के ऐसा कहने पर भानु ने पहले तो अपने महान् तेजस्वी पुत्र को लाकर उससे नारदजी को प्रणाम करवाया। तदनन्तर अपनी कन्या को दिखलाने के लिये नारदजी को घर के अंदर ले गये। गृह में प्रवेशकर उन्होंने पृथ्वी पर लोटती हुई नन्हीं-सी दिव्य बालिका को गोद में उठा लिया। उस समय उनका चित्त स्नेह से विह्वल हो रहा था। |
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