श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम और विधि-निषेधप्रेमाभक्ति में कर्मत्याग अपने-आप ही हो जाता है। प्रेम में मत वाला भक्त अपने प्रियतम भगवान को छोड़कर अन्य किसी बात को जानता नहीं, उसका मन सदा प्रियतम श्रीकृष्णाकार बना रहता है, उसकी आँखों के सामने सदा सर्वत्र प्रियतम भगवान की छबि ही रहती है। दूसरी वस्तु में उसका मन ही नहीं जाता। श्रीगोपियों ने भगवान से कहा था-
‘प्रियतम! हमारा चित्त आनन्द से घर के कामों में आसक्त हो रहा था, उसे तुमने चुरा लिया। हमारे हाथ घर के कामों में लगे थे, वे भी चेष्टाहीन हो गये और हमारे पैर भी तुम्हारे पादपद्यों को छोड़कर एक पग भी हटना नहीं चाहते। अब हम घर कैसे जायँ और जाकर करें भी क्या?’ जगत का चित्र चित्त से मिट जाने के कारण वह प्रेमी भक्त किसी भी लौकिक (स्मार्त्त) अथवा वैदिक (श्रोत) कार्य के करने लायक नहीं रह जाता। प्रेम की प्राप्ति होने पर लौकिक और वैदिक कर्म छूट जाते हैं, जान-बुझकर उनका स्वरूप त्याग नहीं करना पड़ता। समर्पण का अर्थ उनका मन से समर्पण ही है। फिर जब प्रेम की उच्च दशा प्राप्त होती है, तब विधि-निषेध के परे पहुँच जाने के कारण ये सब कर्म स्वतः ही उसे विधि के बन्धन से मुक्त कर अलग हो जाते हैं। उस स्थिति का यही नियम है; जो जान-बूझकर प्रेम के नाम पर शास्त्र विधि का त्याग करता है, उसे भक्ति की सिद्धि सहज में नहीं होती। विधि-निषेध के ऊपर उच्च स्तर में पहुँच जाने पर परमात्मा के सत्य स्वरूप में इतनी प्रगाढ़ तल्लीनता हो जाती है कि समस्त नियमों के बन्धन अपने-आप टूट जाते हैं; वहाँ का नियम ही स्वाभाविक स्वच्छन्दता है। परंतु उस स्थिति के पहले जान-बूझकर शास्त्र और सदाचार के आवश्यक बन्धनों को तोड़ने वाले की तो वही दशा होती है, जो नदी के उस पार भूमि पर उतरे हुए पथिक की देखा-देखी नदी की बीच धारा में नौका को छोड़ देने वाले की होती है। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमद्भा० 10। 29। 34
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