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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वृन्दावनवास के लिये स्थिर मन की आवश्यकतामहापुरुषों के दिव्य भावश्रीगौड़ेश्वरसम्प्रदाय के विश्वविख्यात आचार्य श्रीरूप गोस्वामी महाशय श्रीवृन्दावन में एक निर्जन स्थान में वृक्ष की छाया में बैठे ग्रन्थ लिख रहे थे। गरमी के दिन थे। अतः उनके भतीजे और शिष्य महान विद्वान् युवक श्रीजीव गोस्वामी एक ओर बैठे श्रीगुरुदेव के पसीने से भरे बदन पर पंखा झल रहे थे। श्रीरूप गोस्वामी के आदर्श स्वभाव-सौन्दर्य और माधुर्य ने सभी का चित्त खींच लिया था। उनके दर्शनार्थ आने वाले लोगों का ताँता बँधा रहता था। एक बहुत बड़े विद्वान उनके दर्शनार्थ आये और श्रीरूपजी के द्वारा रचित ‘भक्तिसामृत’ ग्रन्थ के मगंलाचरण का श्लोक पढ़कर बोले, ‘इसमें कुछ भूल है, मैं उसका संशोधन कर दूँगा।’ इतना कहकर वे श्रीयमुना-स्नान को चले गये। श्रीजीव को एक अपरिचित आगन्तुक के द्वारा गुरुदेव के श्लोक में भूल निकालने की बात सुनकर कुछ क्षोभ हो गया। उनसे यह बात सही नहीं गयी। वे भी उसी समय जल लाने के निमित्त से यमुनातट पर जा पहुँचे। वहाँ वे पण्डित जी थे ही। उनसे मगंला चरण के श्लोक की चर्चा छेड़ दी और पण्डितजी से उनके संदेह की सारी बातें भली-भाँति पूछकर अपनी प्रगाढ़ विद्वत्ता के द्वारा उनके समस्त संदेहों को दूर कर दिया। उन्हें मानना पड़ा कि श्लोक में भूल नहीं थी। इस शास्त्र के प्रसगं में अनेकों शास्त्रों पर विचार हुआ था और इसमें श्रीजीव गोस्वामी के एक भी वाक्य का खण्डन पण्डितजी नहीं कर सके। शास्त्रार्थ में श्रीजीव की विलक्षण प्रतिभा देखकर पण्डित जी बहुत प्रभावित हुए और श्रीमद्रूप गोस्वामी के पास आकर सरल और निर्मत्सर भाव से उन्होंने कहा कि ‘आपके पास जो युवक थे, मैं उल्लास के साथ यह जानने को आया हूँ कि वे कौन हैं?’ श्रीरूप गोस्वामी ने कहा कि ‘वह मेरा भतीजा है और शिष्य भी, अभी उस दिन देश से आया है।’ यह सुनकर उन्होंने सब वृतान्त बतलाया और श्रीजीव की विद्वत्ता की प्रशंसा करते हुए श्रीरूप गोस्वामी के द्वारा समादार प्राप्त करके वे लौट गये। इसी समय श्रीजीव यमुनाजी से जल लेकर आये और उन्होंने गुरुदेव के चरणकमलों में प्रणाम किया। श्रीरूप गोस्वामीजी ने अत्यन्त मृदृ वचनों में श्रीजीव से कहा- ‘भैया! भट्टजी कृपा करके मेरे समीप आये थे और उन्होंने मेरे हित के लिये ही ग्रन्थ के संशोधन की बात कही थी। यह छोटी-सी बात तुम सहन नहीं कर सके। इसलिये तुम तुरंत पूर्व देश को चले जाओ। मन स्थिर होने पर वृन्दावन लौट आना।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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