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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वृन्दावनवास के लिये स्थिर मन की आवश्यकतामहापुरुषों के दिव्य भावव्रज-रस के सच्चे रसिक, व्रजभाव में पारगंत श्रीरूप के मुख कमल से बड़ी मृदु भाषा में ये शासन वाक्य निकले। इनमें मृदुता है, दैन्य है, शिष्य के प्रति उपदेश है और कृपा से पूर्ण शासन हैं ‘मन स्थिर होने पर वृन्दावन आना।’ अर्थात् वृन्दावन वास करने के वे ही अधिकारी हैं जिनका मन स्थिर है। अस्थिर मन वाले लोगों का वृन्दावन वास सम्भवतः अनर्थोत्पादक हो सकता है। और स्थिर मन का स्वरूप है- परम दैन्य, आत्यन्तिक सहिष्णुता, नित्य श्रीकृष्णगत चित्त होने के कारण अन्यान्य लौकिक व्यवहारों की ओर उपेक्षा। भट्टजी ने श्रीरूप गोस्वामी जी की भूल बतायी थी, इससे उन्हें क्षोभ होना तो दूर रहा, उन्हें लगा कि सचमुच मेरी कोई भूल होगी, भट्टजी उसे सुधार देंगे। श्रीजीव गोस्वामी ने शास्त्रार्थ में पण्डित जी को हरा दिया, इससे श्रीरूप गोस्वामी को सुख नहीं मिला। उन्हें संकोच हुआ और अपने प्रियतम शिष्य को शासन करना पड़ा। वे श्रीजीव गोस्वामी के पाण्डित्य को जानते थे, पर श्रीजीव में जरा भी पाण्डित्य का अभिमान न रह जाय, पूर्ण दैन्य आ जाय- वे यह चाहते और इसी से उन्होंने श्रीजीव को चले जाने की आज्ञा दी। यह उनका महान् शिष्यवात्सल्य था और इसी रूप में बिना किसी क्षोभ के अत्यन्त अनुकूल भाव से श्रीजीव ने गुरुदेव की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया। वे बिना एक शब्द कहे तुरंत पूर्व की ओर चल दिये तथा यमुना के नन्दघाट पर, जहाँ स्नान करते समय नन्दबाबा को वरुण देवता को दूत वरुणालय में ले गये थे, जाकर निर्जन वास करने लगे। वे कभी कुछ खा लेते, कभी उपवास करते और भजन में लगे रहते। उन्होंने एक बार श्रीगुरुमुख से सुना था कि ‘सुख-दुःख-दोनों में परमानन्द का आस्वादन हुआ करता है।’ यहाँ श्रीजीव को गुरुदेव के वियोग का दुःख था; परंतु इस दुःख में भी वे श्रीगुरुदेव के पादपहा में तन्मयता प्राप्त करके परमानन्द प्राप्त कर रहे थे। विरह में ही मिलन की पूर्णता हुआ करती है। |
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