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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
एक लालसाजीवन का परम ध्येय स्थिर हो जाने पर जब उसके अतिरिक्त अन्य सभी लौकिक-पारलौकिक पदार्थों के प्रति वैराग्य हो जाता है, तब साधक के हृदय में कुछ दैवी भावों का विकास होता है। उसका अन्तःकरण शुद्ध सात्त्विक बनता जाता है। इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं, मन विषयों से हटकर भगवान में एकाग्र होता है, सुख-दुःख, शीतोष्ण का सहन सहज में ही हो जाता है, संसार के कार्यों से उपरामता होने लगती है, परमात्मा और उसकी प्राप्ति के साधनों में तथा संत-शास्त्रों की वाणी में परम श्रद्धा हो जाती है, परमात्मा को छोड़कर दूसरे किसी पदार्थ से मेरी तृप्ति होगी या मुझे परम सुख मिलेगा- यह शकां सर्वथा मिटकर चित्त का समाधान हो जाता है। फिर उसके एक परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उसकी सारी क्रियाएँ केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिये होती हैं। वह सब कुछ छोड़कर एक परमात्मा को ही चाहता है। इसी का नाम मुमुक्षा या शुभेच्छा है। मुमुच्छा तो इससे पहले भी जाग्रत् हो सकती है, परंतु वह प्रायः अत्यन्त तीव्र नहीं होती। विवेक-ध्येय का निश्चय, वैराग्य, सात्त्विक षट्सम्पति आदि की प्राप्ति के बाद जो मुमुक्षुत्व होता है, वही अत्यन्त तीव्र हुआ करता है। भगवान श्रीशंकराचार्य ने मुमुक्षुत्व के तीव्र, मध्यम, मन्द और अतिमन्द- ये चार भेद बतलाये हैं। आध्यात्कि, आधिभौतिक और आधिदैविक भेद से त्रिविध[1] होने पर भी प्रकार भेद से अनेक रूप दुःखों के द्वारा सर्वदा पीड़ित और व्याकुल होकर जिस अवस्था में साधक विवेक पूर्वक परिग्रह मात्र को ही अनर्थकारी समझकर त्याग देता है, तब उसको तीव्र मुमुक्षा कहते हैं। त्रिविध ताप का अनुभव करने और सत्-परमार्थ वस्तु को विवेक से जानने के बाद, मोक्ष के लिये भोगों का त्याग करने की इच्छा होन पर भी संसार में रहना उचित है या त्याग देना- इस प्रकार के संशय में झूलने को मध्यम मुमुक्षा कहते हैं। मोक्ष के लिये इच्छा होने पर भी यह समझना कि अभी बहुत समय है, इतनी जल्दी क्या पड़ी है, संसार के कामों को कर लें, भोग भोग लें, आगे चलकर मुक्ति के लिये भी उपाय कर लेंगे- इस प्रकार की बुद्धि को मन्द मुमुक्षा कहते हैं और जैसे किसी राह चलते मनुष्य को अकस्मात् रास्ते में बहुमूल्य मणि पड़ी दिखायी दी और उसने उसको उठा लिया, वैसे ही संसार के सुख-भोग भोगते-भोगते ही भाग्यवश कभी मोक्ष मिल जायगा तो मणि पाने वाले पथिक की भाँति मैं भी धन्य जाऊँगा- इस प्रकार की मूढ़मति वालों की बुद्धि को ‘अतिमन्द मुमुक्षा’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोग आदि से होने वाले दुःखों को आध्यात्मिक; अनावृष्टि, अतिवृष्टि, वज्रपात, भूकम्प, दैव-दुर्घटना आदि से होने वाले दुःखों को आधिदैविक और दूसरे मनुष्यों या भूतप्राणियों द्वारा होने वाले दुःखों को आधिभौतिक कहते हैं।
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