श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
23. शिवोपासना
महारानी रुक्मिणी अन्तर्वत्नी हुई तभी देवी जाम्बवती के मन में भी उत्कण्ठा जागृत हुई। नारी कामिनी है केवल मातृत्व प्राप्त करने के लिए। उसकी सफलता ही माता बनने में है, अतः माता बनने की उसकी उत्कण्ठा नैसर्गिक है। पति की तो वह सहधर्मिणी है। पति के धर्माचरण को सांगता देने वाली, सहायता देने वाली और प्रोत्साहन देकर पति को उसके कर्तव्य पर दृढ़ रखने वाली। नारी की सार्थकता पुरुष को बाँधने में नहीं है। पुरुष को प्रोत्साहन देकर, परिवार की ओर से निश्चिन्त करके मुक्त कर देने में- अपवर्ग के मार्ग पर लगा देने में है; क्योंकि पति की मुक्ति में ही उसकी मुक्ति निहित है। साक्षात परमपुरुष श्रीकृष्ण की महारानियों के लिए मोक्ष का प्रश्न ही कहाँ। मुक्ति तो उनके चरण-स्मरण से साधारण जन पा लेते हैं। लेकिन मातृत्व तो नारी मात्र का स्वप्न है-स्वप्न है। अतः देवी जाम्बवती की उत्कण्ठा उचित ही थी। प्रद्युम्न का जन्म हुआ; किन्तु शिशु का सातवें दिन ही हरण हो गया। महारानी रुक्मिणी अधीर हो उठी थीं। उन्होंने जाम्बवती से कहा- 'बहिन! मैं तो भाग्यहीना हूँ। पुत्र हुआ भी तो मेरी गोद में नहीं रहा; किन्तु तुम्हारी गोद भर जाय तो मैं उसी का लालन-पालन करके अपने को सन्तुष्ट कर लूँगी। श्रीद्वारिकाधीश तो आप्तकाम पूर्ण पुरुष हैं। उनसे प्रार्थना करनी पड़ती है। तुम उनसे करो।' देवी जाम्बवती ने एकान्त में अपने आराध्य से प्रार्थना की- 'आप समर्थ है, सर्वेश्वर हैं। मेरा नारीत्व सफलता चाहता है। योग्य पुत्र के लिए मेरा चित्त लालायित है।' 'आपके समान सुन्दर' जाम्बवती ने उत्सुकता के साथ कहा- 'कुमार स्कन्द के समान पराक्रमी।' पौण्ड्रक मारा जा चुका। द्वारिका पर चढ़ायी कर दे, ऐसा दूसरा कोई इस समय दृष्टि के नहीं। जो हैं भी वे पौण्ड्रक मारे जाने और काशी-दहन से आतंकित हो गये हैं। वे कुछ समय साहस नहीं करेंगे। अतः अवसर उपयुक्त था। श्रीसंकर्षण से तथा महाराज उग्रसेन से अनुमति लेकर सात्यकि को सावधान करके श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका से गरुड़ पर आसीन हुये। इस बार उन्होंने सोचा-केवल लोकादर्श के लिए सोचा- 'पहिली बार के तप से प्राप्त पुत्र का हरण हो गया। भगवान उमाकान्त के आशीर्वाद से प्राप्त पुत्र लौट तो आयेगा; किन्तु देवी रुक्मिणी को पुत्र-वियोग मेरे प्रमाद से प्राप्त हुआ। ऐसे प्रमोद फिर मैं नहीं करुँगा।' सकाम आराधना विधि की सम्पूर्णता चाहती है। उसमें विधि-निर्वाह में कहीं त्रुटि रह जाय तो वह निष्फल हो सकती है, अल्प फल देगी अथवा विपरीत फल भी दे सकती है। श्रीकृष्णचन्द्र को विपरीत फल देने में कौन समर्थ है। वे कुछ करें, चाहें, उनका संकल्प निष्फल होने से रहा। मर्यादा भी रहनी चाहिए, अतः अल्प फल के नाम पर पुत्र होकर भी कुछ काल को वियुक्त हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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