श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. काशी-दहन
कृत्या आधिदैवत शक्ति - तामस देवता है, वह जड़ ज्वाला तो नहीं और कोई ज्वाला हो, जब श्रीहरि का सहस्र सूर्य सदृश सुदर्शन चक्र अपने प्रचण्ड तेज में प्रज्वलित होता है, प्रलयकर की तृतीय नेत्राग्नि भी केवल विस्फुलिंग लगने लगती है, कृत्या की ज्वाला तो बहुत तुच्छ थी। सुदर्शन के असह्म तेज में कृत्या को लगा कि वह स्वयं भस्म हो जायेगी। चक्र के तेज ने ही उसे रौंद दिया। उसका मुख झुलस उठा और वह अभिचाराग्नि लौट पड़ा प्रयोग-स्थल की ओर। कोई भी अभिचार प्रयोग जब लौट पड़ता है- अत्यन्त सावधान प्रयोक्ता के प्राण भी प्रायः नहीं बचते। सुदक्षिण तथा उसके उपाध्यायों ने तो द्वेष के आवेग में और महेश्वर के वरदान के आश्वासन में स्व-रक्षण की कोई व्यवस्था भी नहीं की थी। कृत्याग्नि लौटी और उसने इन सबको भस्म कर दिया। इनमें-से किसी की अस्थि तक नहीं बची। रुई के ढेर के समान वे क्षण भर में भस्म बन गये। उन्होंने सावधानी रखी होती, रक्षा की व्यवस्था कर ली होती- कोई लाभ नहीं था। वे उस रक्षा-प्रयोग से केवल कृत्या से बच सकते थे। सुदर्शन को तो कोई मन्त्र-तन्त्र रोकने में समर्थ नहीं। वह कृत्या के पीछे ही दौड़ा आ रहा था। राजा का-शासक का कर्म प्रजा को भी भोगना ही पड़ता है। सुदक्षिण के दोष से वाराणसी भस्म हो गयी। उसके उच्च भवन, दुकानें, देव-मन्दिर तक ध्वस्त हो गये। केवल विश्वनाथ, अन्नपूर्णा जैसे कुछ मन्दिरों को सुदर्शन ने स्पर्श नहीं किया-अन्यथा काशी भस्म की ढेरी-प्रलयाग्नि दग्ध सृष्टि के समान हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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