भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अवतार के लिए अनुरोध
धरा के दो कार्य हैं-
अत: धरा का आधिदैवत रूप है गौ। भूदेवी के रूप में तो वे नित्य भगवान् नारायण की सहचरी हैं। जब उनके लिए आसुरभाव असह्य हो जाता है और वे स्वयं उसे दूर करने में अक्षम हो जाती हैं, जब उनके सहायक देवता भी समर्थ नहीं रह जाते तो देवताओं के साथ ये स्रष्टा की शरण जाती हैं।[1] पृथ्वी की अपनी पहुँच ब्रह्मलोक तक– सृष्टि कर्ता तक ही है। पार्थिव साधनों से होने वाले कर्मों की गति भी यहीं तक है। धर्म और तप के द्वारा मनुष्य यहीं तक पहुँच सकता है। योग, ज्ञान, उपासना तो अन्तर्यामी वासुदेव से एकत्व प्राप्त कराने वाले साधन हैं। अत: इनमें हिरण्यगर्भ का क्षेत्र तो पीछे छूट जाता है; किन्तु धर्म और तप का माध्यम देह है और समस्त देह हिरण्य गर्भ के संकल्प में स्थित हैं, अत: अपने संकल्पकर्ता से आगे इनकी पहुँच सम्भव नहीं है। जो सृजन का अधिदेवता है, जगत में अव्यवस्था उत्पन्न करने वालों की सृष्टि भी उसी ने की है। अत: दायित्व उसी का है कि वह उसे संयमित नियन्त्रित करे। जब जीवन में आसुर वृत्तियां बढ़ जायें- इन्द्रियों की शक्ति अत्यधिक भोग समाप्त प्राय: कर दें और सात्त्विक वृत्तियों का ह्रास होने लगे- व्यक्ति की धी-धारिका शक्ति इसके अतिरिक्त और क्या करे कि इन्द्रियों को[2] एकत्र करे और अन्त: करण[3] से सहायता की पुकार करे। न स्रष्टा और न देवता ही समर्थ हैं इस भार को दूर करने में। देवता समर्थ रहते हैं, तब तक वे भौतिक उपद्रवों के माध्यम से सन्तुलन बनाये रखते हैं; किन्तु नर तो नारायण का सखा है।उसका बल-उसकी बुद्धि– अनेक बार वह मन्त्र, तप अथवा औषधि (विज्ञान) के द्वारा सुरों की शक्ति को कुण्ठित कर देता है। सृष्टिकर्ता सृजन कर सकते हैं, उनका कार्य वृत्तियों को स्वरूप देना है। वे स्वयं नियन्त्रण करने में असमर्थ हैं। अन्त: करण तक गति है इन्द्रियों के देवताओं एवं धी की; किन्तु अन्त: करण नियामक स्वयं नहीं हो सकता। नियन्त्रण एवं पालन कर्ता तो अन्त:करण के प्रकाशक अन्तर्यामी वासुदेव हैं। अन्त:करण एकाग्र हो तो उस अन्तर्यामी प्रकाश- उसकी शक्ति जीवन में अवतरित हो। भगवान ब्रह्मा को सुरों एवं धरा के साथ एकाग्र होकर क्षीरसागर के तट पर जाकर प्रार्थना करनी पडती है। क्षीरोदधि-विशुद्ध सत्व में जो परम प्रकाशक स्थित है, उसी से तो पुकार की जा सकती है। स्रष्टा स्वयं सत्वोन्मुख रजोगुण के अधिदेवता हैं। उनकी पहुँच सत्वगुण के अधिदेवता भगवान नारायण तक है। वे उन श्रीहरि की प्रार्थना करते हैं सुरों के साथ। भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए हैं और पुत्र पर संकट आये तो वह पिता के अतिरिक्त और किसे पुकारे? अवतार लेने का-भूभार-हरण का मुख्य दायित्व उन अनन्तशायी पर है ओर जगत्स्रष्टा के लिए उन्हीं को पुकारना सहज सुगम भी है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूस्खलन, भूकम्पादि पृथ्वी का आधिदैवत प्रकोप भी हो सकता हैं। अग्नि, जल, वायु के प्रकोप से अथवा महामारियों के द्वारा महाविनाश धरा पर बार-बार होता है; किंतु अनेक बार आसुर शक्ति इन पर अधिकार पा लेती है।
- ↑ इन्द्रियों के अधिदेवताओं को
- ↑ हिरण्यगर्भ
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