भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अवतार के लिए अनुरोध
सुरों के तथा भगवान ब्रह्मा के लिए भी प्रलयंकर तक पहुँचना कठिन तो नहीं है। विनाश के उन अधिदेवता से भूभार बने वर्गों के विनाश की प्रार्थना न करने का कुछ कारण होगा? रजोगुण भले सत्वोन्मुख हो, सत्व की ओर-शुद्धता-सूक्ष्मता की ओर जाने की अपेक्षा तमस की ओर जाना सरल है उसके लिए। किन्तु जब तमस से ही उत्पीड़न हो रहा हो, उसे और बढ़ा देने से लाभ होगा? भगवान् नीललोहित स्वभाव से शान्त है; किन्तु क्षुब्ध होने पर वे शिव प्रलयंकर हो जाते हैं। प्रलय करना हो तो उन्हें कुछ सोचना नहीं होता; किन्तु कुछ को नष्ट करके कुछ की रक्षा उनके लिए सदा अटपटी रहती है। सुरों और ब्रह्मा के साथ सदा शिव भी प्राय: क्षीरोदधि तट जाकर प्रार्थना ही करते हैं। अनेक बार वे उद्धत असुरों का दमन स्वयं करते हैं; किन्तु वह भी तब जब श्री हरि अनुरोध करे कि यह कार्य आप कर दो। पालन-शासन-संरक्षण भगवान नीलकण्ठ का स्वभाव नहीं है। वे आशुतोष जैसे किसी को वरदान दे देते हैं, वैसे ही सृष्टि के परमपालक कोई अनुरोध करे तो उतना कार्य भी कर देते है। अन्यथा अपने स्वरूप में निमग्न वे परमगुरु-ज्ञान का स्वभाव सृजन-संरक्षण नहीं हैं ज्ञान का स्वभाव प्रकाश देना-सबको प्रकाशित करना और सम्पूर्ण भ्रम, अविद्या को मिटा देना है। भगवान् पशुपति ज्ञानस्वरुप हैं। वे वैराग्य मूर्ति प्रलयंकर हैं। अवतार की प्रार्थना भगवान नारायण से ही की जाती हो और वही अवतार लेते हों, ऐसा तो नहीं है। पुराणों में महाशक्ति के, भगवान शिव के, महागणाधिपति के और भुवन भास्कर के भी अवतारों का वर्णन है। यह बात इस पर निर्भर है कि सृष्टि में जो व्यतिक्रम आया है, उसका स्वरूप क्या है और उसके प्रशमन के लिए सर्वेश्वर का प्राकट्य् किस रुप में सृष्टिकर्ता को अभीष्ट है। भगवान नारायण, श्रीगंगाधर, महाशक्ति, गणनाथ और सूर्यदेव एक ही परमतत्व के ये पांच स्वरूप हैं। वैसे दिव्य धामों में इनके पृथक-पृथक नित्य धाम हैं; किंतु साकार विग्रह पृथक-पृथक होते हुए भी ये एक ही परमतत्त्व के अनेक रुप हैं। अत: इनमें न सामर्थ्य का कोई तारतम्य है और न अनुग्रह का। एक अनन्त सच्चिदानन्द चाहे जिस रुप में हो, उसमें तारतम्य सम्भव नही है। अवतार इन पांच रुपों में- से ही किसी का या इनके माध्यम से ही होता है। भगवान आशुतोष, जगज्जननी महाशक्ति और भगवान गजानन- यह परिवार ही आशुतोष है। किसी की आराधना, तप से सन्तुष्ट होने पर इन तीन में कोई यह नही देखता कि जो सामने वरदान मांगने आया है, वह सुर है या असुर। वह जो वरदान मांग रहा है, उसका सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग। प्रसन्न होने पर भक्त वात्सल्य तीनों में ही इतना प्रबल हो जाता है कि इनकी सर्वज्ञता सुप्त हो जाती है। इन्हें तब केवल 'तथास्तु' ही कहना आता है। अनेक-अनेक बार इनसे ही वरदान पाकर असुरों ने इन तीनों को ही नहीं, भगवान भास्कर को भी संत्रस्त किया हैं और ब्रह्माजी का वरदान तो प्राय: उनके विपरीत प्रयोग किया जाता रहा है; किन्तु असीम है इनकी कृपा। अचिन्त्य है इनकी उदारता। अनिरुद्ध है इनका वात्सल्य।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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