श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. सत्या : नाग्नजिती
महाराज नग्नजित के संकेत पर शंख गूँजने लगे हैं। ब्राह्मणों ने स्वस्ति पाठ प्रारम्भ कर दिया। सेवक दौड़ने लगे हैं। वैवाहिक पद्धति प्रारम्भ हो चुकी है। 'महाराज! अब ये सदा के लिये सीधे हो गये।' श्रीकृष्णचन्द्र सातों वृषभों को रज्जु में नाथे बाहर लिये चले आये- 'अब ये किसी पर आघात नहीं करेंगे।' 'ये सदा आपके हैं। आपके ही रहें। महाराज ने प्रथमोपहार बना दिया उन वृषभों को।' विवाह की पहिले से कोई प्रस्तुति नहीं थी। कोई मुहूर्त देखा नहीं गया था। उत्तम मुहूर्त में, पूरी तैयारी करके ही महाराज को कन्या दान करना था। पहिला विवाह श्रीकृष्णचन्द्र का था द्वारिका से बाहर ससुराल में। सबको रुकना पड़ा- अत्यन्त आदर से सब रखे गये। इस विलम्ब का एक दूसरा परिणाम भी हुआ। जो राजकुमार दक्षिण कौसल पहिले वृषभ-निग्रह करने आ चुके थे और अंग-भंग होकर निराश लौट गये थे, उन्हें समाचार मिल गया। उन्हें सेना सज्जित करके मार्गावरोध का समय मिल गया। वे सेना लेकर मार्ग में रोककर बारात को, राजकन्या छीन लेने के अभिप्राय से अपने-अपने राज्यों से चले और एक ही के विरुद्ध थे सब, अतः एक साथ मिलकर उन्होंने उपयुक्त स्थान ढूँढ़ा। सघन अरण्य, दोनों ओर गिरिशिखर और मध्य में संकीर्ण मार्ग। वे शिखरों पर और वन में भी छिपकर प्रतीक्षा करने लगे। बहुत धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। महाराज नग्नजित ने अपार दहेज दिया अपनी दुहिता को। बारात विदा हुई तो अर्जुन अकेले रथ पर बैठे। श्रीकृष्णचन्द्र के साथ उनके रथ पर उनकी नववधू बैठीं तो पार्थ को पृथक रथ पर बैठना ही चाहिये था। 'तुम मुझे साथ लाये हो तो मार्ग में रक्षा का दायित्व मेरा है।' अर्जुन ने वहीं गाण्डीव ज्या सज्ज कर लिया- 'अब अपने सैनिकों को कह दो कि वे मेरे नियन्त्रण में हैं और उन्हें शान्त बाराती बने रहना है।' 'जैसी आपकी आज्ञा।' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अर्जुन की बात स्वीकार कर ली। मार्गावरोध करने वालों की संख्या, उनको मिला समय, उनका व्यूह, मार्ग की उनके अनुकूल स्थिति, सब ठीक; किन्तु गाण्डीवधारी की बाणवर्षा तो गगन से पाताल तक अव्याहत है। विरोधियों के भाग्य में केवल आहत होना और मरना था। उनका एक भी बाण बारात के किसी रथ की ध्वजा का स्पर्श नहीं कर सका। मृगराज यदि मृगों के यूथ में प्रविष्ट हो जाय- मृगों के श्रृंग कुछ काम आवेंगे। अर्जुन के शरों से छिन्नांग, हीनवाहन वे सब अपने मृत सैनिकों, सहायकों को छोड़कर इधर-उधर भाग गये। द्वारिका में समाचार पहिले पहुँच चुका था। नगर सज्जित हो चुका था। वर-वधू के स्वागत के लिये उत्सुक प्रतीक्षा वहाँ चल रही थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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