श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. सत्या : नाग्नजिती
श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर बोले- 'यद्यपि अपने धर्म में स्थित क्षत्रिय के लिये याचना निन्दित मानी गयी है, किन्तु आपके साथ सम्बन्ध-इच्छा से मैं आपकी कन्या का पाणि-प्रार्थी हूँ। क्योंकि आपकी रूपगुण सम्पन्ना पुत्री का शुल्क दे पाना किसी के लिये भी सम्भव नहीं है।' 'स्वामी! निखिल-गुणैक-धाम आपसे बढ़कर अभीष्ट वर मेरी पुत्री के लिये दूसरा कौन हो सकता है। भगवती श्री जिनके चरणों में शाश्वत निवास करती हैं उनका हस्तावलम्ब मिले मेरी कन्या को- इतना बड़ा सौभाग्य उसका।' महाराज गद्गद कण्ठ बोले- 'किन्तु स्वामी! मैं धर्मसंकट में हूँ। मैंने अपने सात वृषभों को निग्रह करने वाले को कन्यादान करने की प्रतीक्षा पहिले ही कर ली है। यदि आप इन्हें निगृहीत कर दें......!' 'आइये देखें उन्हें।' महाराज का वाक्य पूर्ण होने से पहले ही श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। 'ये चतुर्भुज हैं। चार वृषभों को श्रृंग पकड़कर रोक ले सकते हैं, किन्तु सात......!' सेवकों, सभासदों के हृदय धड़कने लगे। लेकिन अर्जुन और द्वारिका के लोगों को श्रीकृष्ण के स्वरूप का पता है। इन जगदीश्वर के लिये भी कुछ अशक्य है, यह वे स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। वृषभों के घेरे के चारों ओर सब खड़े हो गये। श्रीकृष्ण ने लम्बी नासिका में डालने की रज्जु उठायी। पटुका कटि में कसा और वृषभों के घेरे द्वार के भीतर चल पड़े। महाराज नग्नजित के सेवक जो वृषभाहतों के उठाने पर नियुक्त थे, अत्यन्त सतर्क सावधान खड़े हो गये। आहत को उठा ले जाने के उपकरण, उपचार सामग्री, चिकित्सक सदा की भाँति आगत को सूचना दिये बिना प्रस्तुत कर ली गयी थी। इनकी सूचना एवं प्रदर्शन से किसी को आतंकित करने का प्रयत्न तो पहिले भी नहीं किया गया था। किसी को रज्जु उठाकर द्वार के समीप आते देखते ही वीरपुरुष की गन्ध से उत्तेजित होकर हुंकार करने वाले, नासिका से फुत्कार छोड़ते उग्र हो जाने वाले वृषभ- ये तो द्वार खुलने से पूर्व पृथ्वी खुरों से खोदने लगते थे- सिर झुकाकर टूट पड़ने को प्रस्तुत हो जाते थे और आज इनमें-से एक ने भी तो गर्जना नहीं की। सब शान्त- जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो। ये धर्म-वृषभ- अपने स्वामी को ये नहीं पहिचानेंगे? ये तो पूँछ उठाये खड़े हो गये थे, जैसे इनसे मिलने को ही उत्सुक हों। 'श्रीकृष्ण कहाँ हैं? किस वृषभ के समीप हैं?' सेवकों ने - सभी दर्शकों ने आश्चर्य से देखा। जिस वृषभ पर दृष्टि गयी, वहीं उसी के सम्मुख श्रीकृष्ण और दूसरे वृषभ की ओर देखने का समय भी कहाँ मिला। कोई कैसे समझे कि सर्वरूप ने इस समय अपने सात रूप बना लिये थे। सातों वृषभों को पकड़कर एकत्र कर लिया और उनकी नासिका में छिद्र करते, रज्जु डालते चले गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने सातों वृषभ एक रज्जु में नाथ दिये। वे उनकी नासिका में ग्रथित रज्जु को पकड़े इधर-से-उधर उन्हें घुमाने लगे, मानो वे छोटे बछड़े हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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