श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. श्रीबलराम की तीर्थयात्रा
'तब आप सब इनके पुत्र को इनके स्थान पर प्रवक्ता स्वीकार कर लें।' उसी समय रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा अपने पिता के समान विद्वान हो गये। उन्होंने श्रीबलराम के चरणों में मस्तक झुकाया। 'पिता के और्ध्वदैहिक कृत्य के काल में मुझे आपका सान्निध्य प्राप्त रहे।' उग्रश्रवा ने प्रार्थना की। श्रीबलराम जी ने वहाँ रहना स्वीकार कर लिया क्योंकि इस मृतसूतक की निवृत्ति के पश्चात ही ऋषिगण प्रायश्चित का विधान कर सकते थे। रोमहर्षण को ऋषियों ने ब्रह्मासन तथा आयु प्रदान की थी। अतः वे उनके पारिवारिक व्यक्ति हो गये थे। और्ध्वदैहिक क्रिया सविधि संपन्न हो गयी। अब ऋषियों ने प्रायश्चित निर्णायक परिषद गठित की। मध्यस्थ स्वयं शौनक हुए। परिषद के सम्मुख श्रीबलराम ने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित की जिज्ञासा की। 'अपराध अनजान में हुआ है। मार देने का संकल्प नहीं था और धर्मरक्षा की सद्भावना के कारण हुआ है।' परिषद ने विचार करके प्रतिनिधि के माध्यम से निर्णय सुनाया- 'इसका प्रायश्चित है एक वर्ष तक भारत-भ्रमण करते हुए तीर्थ-स्नान। भारत के सम्पूर्ण प्रधान तीर्थों की यात्रा करके उनमें स्नान करने से आप शुद्ध हो जायेंगे।' तीर्थ-यात्रा करने तो श्रीबलराम जी निकले ही थे। अब सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा का संकल्प बन गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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