श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
सुदामा को यह श्रीकृष्ण का स्नेह, यह आलौकिक सौहार्द मिला। वे अपने शरीर की भी सुधि भूल गये। श्रीकृष्ण जो कहते गये उसे वे मन्त्रचालित की भाँति करते गये; किन्तु वे क्या कर रहे हैं, उन्हें ही नहीं पता था। श्रीकृष्णचन्द्र तो अपने सखा में निमग्न थे। उन्हें भी दूसरा कुछ स्मरण नहीं था उस समय। महारानी रुक्मिणी सेवा में लगी थीं। यह सेवा का सुअवसर पुनः कहाँ मिलना था। ऐसी सेवा भी क्या सेविकाओं पर छोड़ी जाती है। सुदामा ने भोजन किया, विश्राम किया और तब श्रीकृष्णचन्द्र उनके समीप आकर सटकर बैठ गये। कभी उनके चरण दबाने लगते, कभी कर ले लेते करों में और पूछने लगे- 'मित्र! कभी गुरुगृह का स्मरण करते हो? कितना स्नेह था हम पर गुरुदेव का। कितना पवित्र, कितना धन्य जीवन है वह। गुरुसेवा महामंगलमयी है।' 'तुम स्वयं श्रुति के प्रतिपाद्य! गुरुगृह में तुम्हारा निवास तो हम सबको सौभाग्य देने के लिए था।' सुदामा गद्गद कण्ठ बोले। 'तुम सहज विरक्त थे। समावर्तन के पश्चात तुमने विवाह किया या नहीं?' श्रीकृष्ण को सखा के मुख से अपनी प्रशंसा तो सुननी नहीं थीं। उन्होंने प्रसंगान्तर कर दिया- 'तुम्हारे जैसे शास्त्रज्ञ, संयमी के उपयुक्त पत्नी मिल गयी तुम्हें?' सुदामा ने सिर झुका लिया। यह पर्याप्त था समझने के लिए कि वे गृहस्थ हो गये हैं। श्रीकृष्णचन्द्र जानते थे कि सुदामा कैसे निस्पृह हैं। वे सोच रहे थे- 'ये अपरिग्रही, निष्काम, किन्तु इनकी पतिव्रता ने इन्हें भेजा तो उस साध्वी का संकल्प पूरा होना चाहिए।' यह प्रसंग तो जान-बूझकर प्रयोजनानुसार उठाया गया था। 'भाभी ने मुझे कुछ उपहार दिया होगा। क्या लाये हो तुम मेरे लिए?' श्रीद्वारिकाधीश ने बहुत उत्सुकता से पूछा। सुदामा संकोच से सिकुड़कर बैठ गये। द्वारिका का यह वैभव, ये त्रिभुवन के स्वामी श्रीकृष्ण। इनके सम्मुख रखने भी योग्य हैं वे चिउड़े कि सुदामा उन्हें दिखा सकें। 'तुम संकोच मत करो। जानता हूँ कि सदा से संकोची हो। प्रेम से अर्पित दूर्वादल भी मुझे प्रिय लगता है। मैं उसे भी प्रसन्नता से खा लेता हूँ।' सच बात है। स्वयं रमानाथ को कोई भी क्या देगा; किन्तु वे भाव के भूखे, उन्हें पदार्थ नहीं, प्रीति चाहिए। लेकिन सुदामा कैसे साहस जुटावें इन परम सुकुमार सखा को वे चिउड़े, वैसा कदन्न अर्पित करने का। 'यह तुम कक्ष में क्या दबाये हो?' श्रीकृष्ण ने देख लिया कि सुदामा सिकुड़े जा रहे हैं तो हाथ बढ़ाकर उनके कक्ष में दबी पोटली खींच ली। अब तक पूरे समय सुदामा उसे सप्रयत्न छिपाये थे, किन्तु उनके पास उत्तरीय भी तो नहीं था कि पोटली छिपी रहती। वह जीर्ण वस्त्र खींचते ही फट गया और चिउड़े भूमि पर बिखर पड़े। वे चिउड़े-अनेक घरों से माँगे, कई रंगों के , मोटे-पतले, छोटे-बड़े, श्वेत-लाल, सुदामा की पत्नी ने मानो अपनी दरिद्रता की कथा उनके रूप में लिख भेजी थी। उसके पास एक से दो मुट्ठी चिउड़े भी उपहार देने को नहीं हैं, यह कथा थी उन चिउड़ों में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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