श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
पाद-पीठ से भी नीचे, भूमि में जहाँ सेविकाओं के पैर पड़ते हैं बिखरे वे चिउड़े श्रीकृष्ण दोनों हाथों से इस प्रकार समेटने लगे जैसे जन्म-जन्म का क्षुधातुर अन्नकण समेटता हो। पूरे चिउड़े समेटने का धैर्य किसमें था। एक ही मुट्ठी भरी और- 'ये चिउड़े मुझ विश्वरूप को परितृप्त करें।' कहकर मुख में डाल लिया। 'कितने मधुर! कितने स्वादिष्ट! तुम यह अमृत छिपाये बैठे थे?' बहुत शीघ्रता से मुख चला रहे थे और हाथ चिउड़े समेटने में लगे थे। दूसरी मुट्ठी भरी और उठाया तो रुक्मिणी जी ने हाथ पकड़ लिया। 'क्यों?' श्रीकृष्ण ने पट्ट-महिषी की ओर देखा। 'पुरुष को, जीव को इस लोक और परलोक में भी जितनी सम्पत्ति, जितना ऐश्वर्य मिल सकता है उतना तो आप इन्हें दे चुके हैं एक मुट्ठी चिउड़ा चबाकर।' इतने वर्षों के पश्चात आपके सखा पधारे और उनका अमृतोपहार उनका प्रसाद मुझे तथा मेरी बहिनों को क्या आप एक-एक दाना भी देना नहीं चाहते, मुख से महारानी ने उलाहना दिया- 'हम सबको तो अब कठिनाई से एक-एक दाना मिल पायेगा और आप उसे भी अकेले ही खा लेने को उद्यत हैं।' 'ओह, ये इतने स्वादिष्ट हैं कि मुझे तुम लोगों का स्मरण ही नहीं रहा।' श्रीकृष्ण झूठ नहीं बोल रहे थे। उनको जो स्वाद प्रिय है- प्रेम का स्वाद-वह जितना इन चिउड़ों में है, अन्यत्र कहाँ आवेगा। उन्होंने भरी मुट्ठी देवी रुक्मिणी को दे दी। द्वारिका की उन महापट्ट-महिषी ने अपने अंचल में एक-एक दाना सावधानी से समेट लिया और सिर से लगाया उन्हें। सुदामा द्वारिका में केवल एक रात्रि रहे। उनके सखा का अनुरोध, प्रत्येक महारानी का वे एक दिन अतिथ्य ग्रहण करें; किन्तु जब सुदामा ने श्रीकृष्ण की पत्नियों की संख्या सुनी, हाथ जोड़े। उन्हें प्रातःकाल ही प्रस्थान कर देना उचित लगा। यदि वे और रुकते हैं, उनकी ब्राह्मणी प्रतीक्षा करते-करते मर जायेगी। यहाँ वे किस महारानी के स्वागत की उपेक्षा करेंगे? क्या ठिकाना है द्वारिका के दूसरे लोग भी श्रीद्वारिकाधीश के सखा का आतिथ्य करने का आग्रह करने लगें। यह क्रम प्रारम्भ हो जाये तो इस जीवन में तो समाप्त होने वाला नहीं है। श्रीकृष्णचन्द्र ने भी बहुत आग्रह नहीं किया। सुदामा जैसे आये थे वैसे ही, अपनी फटी धोती को पहिनकर विदा हुए। महारानी ने उनके पदों पर मस्तक रखा। श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका से बाहर तक पैदल आये। उन्हें पहुँचाते और अंकमाल देते समय उनके विशाल लोचन झरने लगे थे; किन्तु सुदामा को एक मुट्ठी अन्न, एक वस्त्र तक नहीं मिला था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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