श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. असुर-वज्रनाभ
'भद्र! तुम धर्मात्मा हो। कलाजीवी हो। तुम्हारा अन्न सब स्वीकार करेंगे। हम प्रसन्न हैं, कुछ और माँगे।' ऋषिगण नट के धर्म प्रेम से बहुत सन्तुष्ट हुए। महर्षियों ने नट को 'एवमस्तु' कहा और हंसिनी को लगा कि उसी को वरदान मिल गया है। वह प्रद्युम्न से मिली। श्रीकृष्णचन्द्र और इन्द्र से भी स्वर्ग जाकर मिली। उसने प्रभावती की प्रणय-विह्वलता सुना दी और अपनी योजना भी बतला दी। हंसिनी वज्रपुर लौटी दानवेन्द्र वज्रनाभ से उसने नट की प्रशंसा की- 'वह नट तो उत्तरकुरु तथा कालाभ्रद्वीप भी जाता है। भद्राश्ववर्ष, केतुमाल तक पहुँचता है। वह सबके रूप धारण कर लेता है और अपने नृत्य गीतों से देवताओं, गन्धर्वो को भी चकित कर देता है।' वज्रनाभ बोला- 'मैंने भी थोड़े दिन पहिले सिद्धों से उस नट की प्रशंसा सुनी है। मैं उस वर-प्राप्त नट की कला देखने को उत्सुक हूँ। लगता है कि उस तक मेरी प्रसिद्धि नहीं पहुँची, अतः यहाँ नहीं आया। तुम उसे मिलो और उससे मेरी प्रशंसा करके उसे यहाँ आने को प्रेरित करो।' असुर वज्रनाभ को कहाँ पता था कि वह अपनी मृत्यु को आमन्त्रण दे रहा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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