भागवत सुधा -करपात्री महाराजसमग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य श्रीकृष्ण में किस प्रकार हैं और महाभारत आदि ग्रन्थों में किस प्रकार उनका वर्णन है- यह सब तो सुनाया ही, जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, विनाश गति, आगति, अविद्या एवं विद्या को जानता है, वही भगवान कहलाने योग्य है इस पर भी प्रकाश डाला। इन लक्षणों के विस्तार में ही सात दिन व्यतीत हो गये। वहाँ मुझे पन्चदशी पर प्रवचन करने का दायित्व दिया गया। मैंने भी उनकी देखा देखी ‘तृप्तिदीप’ प्रकरण के ‘आत्मानं चेत् विजानीयात्’ इस वचन का व्याख्यान सात दिनों में किया। उस महोत्सव की यह विशेषता थी कि सबके प्रवचन में सब बैठते थे। सबका सब सुनते और अपनी-अपनी राउटी में बैठकर प्रवचनों पर टीका-टिप्पणी भी करते। इतने बड़े महात्माओं और विद्वानों का छोटे से गाँव में एकत्र होना एक अद्भुत बात थी। श्री करपात्री जी महाराज अपनी विलक्षण प्रतिभा से सभी महात्माओं को प्रभावित कर लेते थे। उनका कहना यह था कि यदि प्रत्यक्ष. अनुमान आदि प्रमाणों से प्रत्यगात्म-स्वरूप ब्रह्म का बोध हो जाय तेा वेदों की प्रामाणिकता ही नष्ट हो जोयगी। प्रमाण वही होता है जो प्रमाणान्तर से अनधिगत एवं अबाधित वस्तु का असंदिग्ध बोध कराता है। परोक्ष, स्वर्गादि रूप फल, यज्ञ-यागादि धर्म के अनुष्ठान से कैसे मिलते हैं, यह बात वेद- शास्त्रों के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार जानी नहीं जा सकती।[1]प्रत्यक्ष-धर्म का परोक्ष फल के साथ सम्बन्ध बताने में ही शास्त्रों की सार्थकता है। धर्म का ज्ञान केवल लौकिक दृष्टि से नहीं हो सकता। दूसरी बात यह थी कि नित्य अपरोक्ष आत्मा केवल अज्ञान के कारण ही अप्राप्त-सा हो रहा है। वह भी शास्त्र के अतिरिक्त और किसी प्रमाण से ज्ञात नहीं हो सकता। जैसे, शब्दादि विषय, श्रोत चक्षु आदि के द्वारा ही प्रत्यक्ष होते हैं- अपने-अपने विषय में सब प्रमाण स्वतन्त्र होते हैं, इसी प्रकार प्रत्यक् चैतन्याभिन्न परमात्म-तत्त्व के सम्बन्ध में एकमात्र शास्त्र ही प्रमाण है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण यदि शास्त्रोक्त विषय का समर्थन करने में उपयोगी हों तो उनको भी मान्य करना चाहिए। वैसे तो मैंने ब्राह्मण-महासम्मेलन में भारतवर्ष के धुरन्धर विद्वानों के, जिन में लक्ष्मण शास्त्री द्राविड़, पन्चानन तर्करत्न, श्री चिन्न स्वामी, श्री अनन्त कृष्ण शास्त्री आदि सम्मिलित थे- इस विषय का विचार -विनियम सुना था। परन्तु श्री करपात्री जी की नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा साधारण जनता को भी श्रुति-स्मृति पर विश्वास करने के लिये बाध्य कर देती थी। श्री करपात्री जी महाराज का कहना था कि वेद,भेद का प्रतिपादक नहीं हो सकते। क्योंकि भेद, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध ही है। |
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- ↑ यज्ञ-यागादि रूप
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