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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
14 ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’-
श्रृंगार रस सर्वस्व श्रीकृष्ण वेणु में अपने मंगलमय मूखचन्द्र का सुमधुर अधर सुधामृत उडे़ल रहे हैं। यह वंशी तृप्त ही नहं होती। और पिलाओ, और पिलाओ। श्रीकृष्ण चन्द्रपरमानन्दकन्द के मुखचन्द्र के सुमधुर अधरामृत का पान करते-करते वंशी अधाती ही नहीं। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श ही ऐसा है कि सूखा वृक्ष भी हरा हो जाता है। पाषाण भी नवनीत (मक्खन) के तुल्य कोमल होकर वह चलता है। पर बाँस की बंशी अधर-सुधा रस का पान करके भी पल्लवित नहीं हुई, हरी-भरी नहीं हुई। इसका छिद्र भी पूरा नहीं हुआ।
गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणु-
र्दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्।
भुड़्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्नदिन्यो
हृष्यत्त्वचोअश्रु मुमुचुस्तरवो यथाअअर्याः।।[1]
(व्रजांगनाएँ कहती हैं, सखी! वेणु पुमान् है। पुरुष जाति का होकर भी इसका सौभाग्य तो देखो। हम ब्रजाअंगनाओं की निधि, हमारे प्रेमपाश में बँधे ब्रजेन्द्रनन्दन दामोदर की अधर सुधा है। उसे ही यह बिना हमारी अनुमति के पिए जा रहा है। यद्यपि हमारे दामोदर हैं अनन्त। उनकी अधर-सुधा भी अनन्त है। पर यह ऐसे पिए जा रहा है, मानो हमारे लिए कुछ बचने ही नहीं देगा? इस वेणु को अपने रस से सींचने वाली ह्नदिनियाँ आज कमलों के मिस (बहाने) रोमांच कण्टकित हो रही हैं। अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इस वेणु के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों में आनन्दाश्रु बहा रहे हैं।)
एक सखी कहती है- ‘‘अरो सखियों! बताओं तो सही! कौन-सा चातुर्य है इस वेणु में? कुछ भी तो नहीं। श्रीकृष्ण परमानन्द के मुखचन्द्र के सुमधुर अधरा मृत का पान करता हुआ शुष्क-का-शुष्क सच्छिद्र-का-सच्छिद्र ज्यों-का-त्यों बना है। देखो तो सही गाँठे भी तो ज्यों-की-त्यों ही बनी हुई हैं। सच है, जो सच्छिद्र और सग्रन्थि होता है, उसे अध्यात्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता। यह वेणु पोला है, पोला। पोल पट्टी वाला होने के कारण भी अनाधिकारी है। कहते हैं, मलयाचल के सम्बन्ध से निंब भी चन्दन हो जाता है। लेकिन बाँस तो बाँस ही रहता है। आखिर ऐसा क्यों? बस इसलिए कि बाँस में पोलापन है और ग्रन्थि है। यह वेणु भी पोला और गाँठ वाला होने के कारण अधरामृत पान करते रहने पर भी शुष्क -का-शुष्क ही बना हुआ है। ‘छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति’ सखी सच है, यह वंशी सच्छिद्र है। इसी से यह अनर्थ करने में ही तुली रहती है।’’ दूसरी सखी कहती है-‘हे सखी! तुम समझती नहीं। अरी! यह वंशी चतुर है, चतुर। इसने समझा, प्रीति को छिपाना चाहिए।
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