विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजसप्तम-पुरुष 2. भगवान वामन को आविर्भावक्षर-नश्वर वस्तुओं के लिये सर्वस्व अर्पण और अक्षर ब्रह्मात्मतत्त्व के लिये अविवेक की दशा में ही संभव है। अविवेकी इन्द्रों में औदार्य नहीं होता। तभी वे अक्षर तत्त्व के अनुसन्धान में तत्पर और जगत से पूर्ण विरक्त महापुरुषों को भी धन-जन और स्वर्गादि में आसक्त होकर ही तपस्या करने वाले समझकर उपद्रव करते हैं। लेकिन राजा बलि ऐसा नहीं था। बडा त्यागी था। अपना सर्वस्व भगवान वामन को उसने शुक्राचार्य के मना करते रहने पर भी सौंप दिया। भगवान वामन को उपेन्द्र भी कहते हैं। गौओं ने उन्हें अभिशिक्त करके गोविन्द और उपेन्द्र नाम से प्रसिद्ध किया है। देवमाता अदिति ने पयोव्रत किया। पयोव्रत से भगवान् सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर विष्णु प्रसन्न हो गये और आये। बोले- ‘वरदान माँगो।’ माँ ने कहा- ‘‘भगवन! आप जानते ही हैं।’’ भगवान ने कहा- हाँ! ये तुम्हारी बहुँए जैसे रो रही हैं, वैसे ही दानवों दैत्यों की बहुएँ रोएँ, यही चाहती हो। लेकिन इस समय असम्भव है। राजा बलि बड़ा प्रतापी है, ब्रह्मण्य है। ब्राह्मणों का उस पर विशेष अनुग्रह है। भृगवंशियों ने उसको सबल बना रखा है, अनन्त तेज से युक्त कर रखा है। परन्तु हम तुम्हारा अभिप्राय पूरा करेंगे। भिक्षा माँगेंगे।’’ भगवान् वामन का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत में दीक्षित किया गया। भगवती राजराजेश्वरी उमा ने उनको भिक्षा प्रदान किया। वनस्पतियों ने भी दण्ड कौपीन आदि देकर भिन्न-भिन्न ढंग से सम्मान किया। अब भगवान चले उद्देश्य पूर्ण करने के लिये। राजा बलि के यज्ञ में में पहुँचे। सभी उनके तेज से पराभूत हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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