विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’चक्रवर्ती नरेन्द्र दशरथ महाराज के ऊपर अनुग्रह करके भगवान परात्पर परब्रह्म श्रीरामचन्द्र राघवेन्द्र के रूप में प्रकट हुए। श्रीमद्भागवत में लिखा है- ‘एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’[1]’ अन्य जितने भी अवतार हैं, सब भगवान के अंश हैं, कला हैं और कृष्ण स्वयं भगवान् हैं।’ यहाँ ‘च’ है। ‘च’ कहता है कि ‘रामचन्द्रोअपि’, अर्थात श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णतय पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं, वैसे ही श्री रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान भी परात्पर परब्रह्म हैं। श्रीमद्बल्लभाचार्य कट्टर श्रीकृष्णभक्त हुए हैं। उन्होंने रामावतार के सम्बन्ध में माना है- स यैः स्पृष्टोअभिदृष्टो वा संविष्टाअनुगतोअपि वा। अर्थात जिसने भगवान रामचन्द्र का स्पर्श किया, जिसने भगवान राघवेन्द्र का स्पर्श किया, जो भगवान रामचन्द्र के पास बैठ गया और जो कौशलेन्द्र भगवान रामचन्द्र के पीछे चला, वे सभी कौशलवासी ऐसे दिव्यधाम में गये, जहाँ बड़े-बडे़ योगी अमलात्मा परमहंस जाते हैं। सर्वाथाअपि पुर्णतम पुरुषोत्तम वेदान्त भगवान का ही श्रीरामचन्द्र रूप में प्राकट्य होता है तभी तो उनके दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, अनुगमन मात्र से प्राणियों की परमगति हो जाती है। दुनियाँ में भगवान रामचन्द्र के अवतार के समान कोई भी अवतार नहीं हुआ। भक्तों ने कहा- कहिये महाराज! आप कहते हैं कर्मकाण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है, उपासना काण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है, ज्ञान काण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है। कौन-से कर्मकाण्ड का इन्होंने अनुष्ठान किया, कौन-से उपासना काण्ड का इन्होंने अभ्यास किया या कौन-से ज्ञान काण्ड का इन्होंने अभ्यास किया कि इनको दिव्य परमधाम, साकेतधाम प्रदान किया? बताइये क्या उत्तर है इसका? हम उत्तर देते हैं- भुशुण्डि रामायण में एक कथा है। एक बार नारद जी महाराज भगवान रामचन्द्र जी के पास आये। भगवान ने पूछा- ‘कहाँ से आये महाराज!’’ नारद जी ने कहा- ‘ब्रह्मलोक से आया हूँ।’ भगवान ने पूछा- ‘कहिये क्या सन्देश है?’ नारद जी ने कहा- ‘‘ब्रह्मा जी ने सन्देश दिया है। उन्होंने कहा है- एक बार मेरे मानस-संकल्प से साठ करोड़ दिव्यांगनायें अविर्भूत हुर्ह। जिनका सौन्दर्य, अनन्तमाधुर्य, अद्भुत-लोकोत्तर माधुर्य था। हमने उनसे कहा- ‘तुम्हारी शादी किससे कर दें?’ उन्होंने कहा- ‘हम देवों या मनुष्यों को नहीं वरण करना चाहती। हम तो अनन्त ब्रह्माण्डनायक रामचन्द्र राघवेन्द्र परात्पर प्रभु को ही अपना सर्वस्व प्राणनाथ, प्रियतम-प्राणधन, परम प्रेमास्पद मानती हैं।’ दैवात न जाने क्या हुआ, हमने उनसे कह दिया, ‘तुम सब लता हो जाओ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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