विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूपयह श्रीवृन्दावन धाम क्या है? पूर्णानुरागरससार का सरोवर। सरोवर में मिट्टी के पंक से समुद्भूत पंकज की आभा-प्रभा-शोभा बड़ी विलक्षण होती है। उसकी शोभा का वर्णन करते-करते कवीन्द्रगण अघाते नहीं। यदि दूध के सरोवर में मक्खन के पंक से उत्पन्न कोई पंकज हो तो उसकी शोभा, प्रभा, आभा, कान्ति कितनी अद्भुत होगी? और कहीं अमृत के सरोवर में अमृतासार पंक से सरोज उत्पन्न हो तो उस पंकज की आभा, प्रभा, कान्ति कितनी अद्भुत होगी? यहाँ तो पूर्णानुराग रससार सरोवर के पंक से प्रादुर्भूत[1] जो पकंज है, वही श्रीवृन्दावन धाम है। पूर्णानुरागरससार सरोवर समुद्भूत सरोज की जो पीली-पीली केसरें हैं वे गोपांगना हैं। उन केसरों में जो पराग[2] है वह हैं श्रीकृष्ण चन्द्र परमानन्दकन्द मदनमोहन ब्रजेन्द्र नन्दन। पराग में जो मकरन्द है, वह हैं श्री राधारानी नित्य निकुज्जेश्वरी। इस तरह श्री राधारानी सर्वान्तरंग हैं। श्रीकृष्ण का अर्थ भी श्री राधारानी वृषभानुनन्दिनी और कृष्णचन्द्र दोनों ही हैं। कृषिर्भूवाचकः शब्दोणश्च निर्वृतिवाचकः। ‘कृष्’ भूवाचक है। भू माने सत्ता है। सत्ता माने भाव है। भाव माने स्थायी भाव है। वह सत्ता महासत्ता रूप है, जिसके बिना सब असत् है, उसी स्वप्रकाश सत् से सब की सत्ता है, वही ‘कृष्ण’ हैं। इसमें णकार निर्वृति या का द्योतक है, वही श्री राधा हैं। आनन्द की आन्तरात्मा अह्नाद-दोनों एक तत्त्व हैं, भेद नहीं। इस प्रकार श्रीराधा-कृष्ण उभय, उभय भावात्वा और उभय-रसात्मा हैं। स्थायी अवच्छिन्न चैतन्य को ‘रस’ को कहते हैं साहित्यक लोग। रस गंगाधर देखो, काव्य प्रकाश देखो, स्थायी उपहित चैतन्य ही रस है। ‘रसो वै सं’[4] जैसे लाख कठोर द्रव्य है। लेकिन अग्नि के संयेाग से पिघल जाती है। रजिस्ट्री पत्र पर लाख की टिकिया पर मुहर के अक्षर लगाये जाते हैं! पहले दिया सलाई लगाकर लाख की टिकिया को कोमल बना देते हैं तब उस पर मुहर के अक्षर लगाते हैं। चित्त सावयव है। मधुसूदन सरस्वती जी ने चित्त को सावयव बताया है ‘स मनः असृजत’[5] इस श्रुति के अनुसार मन या चित्त कार्य है। कार्य होने के कारण ही सावयव है। इसलिये इनमें द्रवता संभव है। ‘युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम्’[6] यह नैयायिकों का मत है। उनके मत में मन अणुपरिमाण परिमित है, अतः एक साथ युगपत् ज्ञान अनुपपन्न है। पर वेदान्तियों के यहाँ मन मध्यम परिमित है। नैयायिक परमाणु के समान मन को नित्य मानते हैं। वेदान्तियों कै यहाँ मन कार्य है, उसमें द्रबता संभव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उत्पन्न
- ↑ सूक्ष्म रज
- ↑ ब्र0वै0पु0 ब्रह्मखण्ड 28
- ↑ तैत्तिरीय 2.6
- ↑ प्रश्नोपनिषद् 6.4
- ↑ गो. सू. 1/1/16
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