भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 4. शरणागति‘मामेकं शरणं ब्रज’= मामेकमद्वितीयं शरणमाश्रयं व्रज निश्चिनु, यथा घटाकाशस्याश्रयो महाकाशः तरंगस्याश्रयो महासमुद्रः। सब धर्मां का परित्याग करके मूल एक अद्वितीय अखण्ड परमात्मा की शरण ग्रहण करो। शरण क्या है? ‘शरणं गृहरक्षित्रौः’ शरण का अर्थ है आश्रय और रक्षिता। ‘मामेकं अद्वितीयं परमात्मानं शरणं= आश्रयं, ब्रज=अवगच्छ। ‘ब्रज गतौ’ मुझ एक अनन्त अखण्ड परात्पर परमात्मा को ही अपना आश्रय जानो, जैसे तरंग अपना आश्रय महासमुद्र को जाने, जैसे घटाकाश अपना आश्रय महाकाव्य को जाने, जैसे उत्पल की नीलिमा अपना आश्रय उत्पल को जाने, जैसे कटक, मुकुट, कुण्डल अपना आश्रय अखण्ड सुवर्ण को जानें। इस प्रकार से ‘मां एकं अद्वितीयं परमात्मानं शरणमाश्रयं व्रज अवगच्छ निश्चिनु’ यही कल्याण का रास्ता है। ‘भगवान ही हमारे आश्रय हैं, तरंग का आश्रय महासमुद्र जैसे है।’ यह निश्चय करना चाहिये। जीवात्मा के आश्रय-अनन्त ब्रह्माण्डधिष्ठान स्वप्रकाश परात्पर परब्रह्म हैं। अथवा ‘शरणं’ माने ‘रक्षितारं’ है। ‘मां एकं परमात्मानं रक्षितारं निश्चिनु’ = मुझ एक अखण्ड परमात्मा को ही अपना रक्षिता जानो। भगवान ही रक्षिता हैं। एक बात है- ‘स एनमविदितो न भुनिक्ति’[1] वेद कहता है- ‘देवता का जब तक साक्षात्कार नहीं होता, तब तक देव पालक नहीं होता, रक्षा नहीं करता।’ एतदर्थ देव का साक्षात्कार होना चाहिये। इसलिये ‘तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः विद्यतेअयनाय[2] इसलिये भगवत्स्वरूप का साक्षात्कार करना चाहिये और उन्हीं को अपना रक्षिता समझना चाहिये। भगवान रामचन्द्र राघवेन्द्र ने भी यही कहा कि- सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। (जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है, उसे मैं समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूँ। यह मेरा सदा के लिये व्रत है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज