विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्यश्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ, बड़ा अद्भुत स्वरूप था। नन्दरानी ब्रजेन्द्र नन्दिनी यशोदा रानी के वक्षःस्थल के दक्षिण भाग में कमलनाल के तन्तुओं के चूर्ण के समान सुन्दर एवं स्निग्ध श्रीवत्स का चिह्न दिखायी दिया तो उन्होंने समया कि हमारे स्तनों से दूध की धारा पड़ गयी होगी, कोमल वस्त्र से पोंछने लगीं तो पुँछा नहीं। मालूम पड़ा कोई चिह्न है। भगवान के दक्षिणावर्त की जो शुभ्रवर्ण की रोमराजि[1] केशों की रोमराजि है, वही श्रीवत्स का चिह्न है। नन्ददानी ने सवुर्ण वर्ण रोमों की वामावर्तराजि से लाच्छित वाम वक्षःस्थल जो कि विद्युत् से आश्लिष्ट श्यामल मेघ-खण्ड के समान अर्थात नील नीरधर पर चमकती हुई दामिनी के समान सुशोभित होता था उसे देखा। अथवा मानो नवल तरुण तमाल पल्लव पर जैसे पीतवर्ण की विहंगिहा[2] चमचमा रही हो ऐसा नन्दरानी ने देखा। अथवा कसौटी पर जैसे कनक रेखा देर्द प्यनान होती है, ऐसे ही भगवान के वाम वक्षस्थल पर वामावर्त की सुवर्ण वर्ण रीमराजि-लक्ष्मी चिह्न का नन्दरानी ने दर्शन किया। 9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’भगवा के स्वरूप के सम्बन्ध में क्या कहना? उर में सुन्दर भृगु चरण श्रीवत्स तथा लक्ष्मी का सुन्दर चिह्न है। दक्षिण वक्षस्थल में दक्षिणवर्त विसतन्तु के समान स्वच्छ स्निग्ध रोमों की राजि है।[3] वाम वक्षःस्थल में वामावर्त की सुवर्ण वर्ण रोमों की राजि है। यही दोनों रोमराजियाँ श्रीवत्स और लक्ष्मी के चिह्न हैं। महानुभावों का कहना है- सुषमा रूपी कामधेनु है। श्रृगांर रस सार सर्वस्व ही उसका दुग्ध है। उसको कामदेव ने स्वयं जमाया है, उससे मक्खन निकाला है। उस मक्खन से ही भगवान का मंगलमय स्वरूप प्रकट हुआ है। 10. अनाघ्रात अनपह्रत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’सच्चिदानन्द-रससार सरोवरमुद्भूत सरोज से ही भगवान् का श्रीमंगलमय विग्रह बना है- अनाघ्रातं भृगैंरनपहृतसौगन्धमनिलै- (तदनन्तद मूर्तिमान चिदानन्दमय ज्योति स्वरूप वे श्रीकृष्ण, माता यशोदा की गोद में इस प्रकार शोभा पाने लगे मानो चिदानन्दमय सरोवर से एक ऐसे ‘नील कमल’ का विकाश हुआ हो कि जिसकी सुगन्ध आज तक भ्रमरों के द्वारा भी नहीं सूँघी गई हो; जिसकी सुगन्ध पवन समुदाय के द्वारा के भी अपहृत नहीं की गई हो एवं जो जल में भी उत्पन्न नहीं हुआ हो तथा जिसको तरंग कणों की अधिकता कभी स्पर्श भी न कर पाई है और जिसको इसके पहले किसी ने देखा भी न हो; अतः ये श्रीकृष्ण ‘अनाघ्रात’, अनपहृत’, अनुत्पन्न’, अनुपहत’, अदृष्ट’ दिव्यातिदिव्य नील कमल के समान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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