विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 1. ब्रह्म-नारद संवादभगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया। (भगवान ब्रह्मा ने एकाग्र चित्त से सम्पूर्ण वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया कि जिससे निर्विकार आत्मस्वरूप भगवान के प्रति रति हो, वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। सम्पूर्ण भूतों- चराचर प्राणियों में उनके आत्मरूप से श्रीहरि ही लक्षित होते हैं, क्यों कि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ अनुमान कराने वाले लक्षण हैं, वे इन सबके एकतात्र द्रष्ट-साक्षी हैं। राजन! इसलिये मनुष्यों को चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें। संत महापुरुष आत्मस्वरूप भगवान की कथा का मधुर-मनोहर-मंगलमय अमृत बाँटते ही रहते हैं, जो अपने कान के दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह निर्मल निष्कलंक हो जाता है। भगवत्कथामृत के रसिक भगवान श्री हरि के चरण-कमलों की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं।) यथा हरौ भगवति नृणां भक्तिर्भविष्यति। गोस्वामी जी कहते हैं- जो गावहिं यह चरित सँवारे। ते एहि ताल चतुर रखवारे।।[3] इस ताल के चतुर रखवारे वही हैं जो बहुत सम्हाल कर बोंले। किसी के सिद्धान्त को ठेस पहुँचाना लक्ष्य नहीं है। हम स्वयं कह देते हैं कि भाई! भिन्न-भिन्न मत हैं- द्वैत भी है, द्वैताद्वैत भी है, विशिष्टाद्वैत भी है, अचिन्त्य भेदाभेद भी है और अद्वैत भी है। जैसे और सब मत हो सकते हैं, वैसे अद्वैत भी हो सकता है, उसका भी वर्णन किया जा सकता है। श्रीधर स्वामी की टीका श्रीमद्भागवत पर बड़ी प्रामाणिक मानी जाती है। गोडिया सम्प्रदाय वाले तो उसको बहुत ही मानते हैं। श्री सनातन गोस्वामी लिखते हैं- पीतश्रीगोपिकागीतसुधारमहात्मनाम्। श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती आदि टीकाकार भी श्रीधर स्वामी की टीका को मानते हैं। एकमात्र वल्लभाचार्य श्रीधर का बिल्कुल स्पर्श नहीं करते, बाकी और सब टीकाकार आगे-पीछे उसका स्पर्श करते हैं। हाँ जीव गोस्वामी आदि ने यह माना है कि श्रीधर स्वामी जी को अद्वैत अभीष्ट नहीं था, अद्वैतियों का मन इधर आकृष्ट करने के लिये क्वचित-क्वचित उन्होंने अद्वैत का चित्रण कर दिया है। आज भी श्रीमद्भागवत का गूढार्थ समझना हो तो श्रीधरी का अवलम्बन अत्यावश्यक है। वे बार-बार अद्वैत-तत्त्व का निरूपण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 2.2.34-37
- ↑ भागवत 2.7.52
- ↑ रामचरितमानस 1.37.1
- ↑ श्रीमत्सनातन गोस्वामिकृत बृहत्तोषिणी, भागवत 10.31
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