भागवत सुधा -करपात्री महाराजकर्मकाण्ड का लक्ष्य भगवत्-पद प्राप्ति ही था। लोक स्वकर्म (स्वधर्म) का अनुष्ठान करते थे। यज्ञ करते थे। यज्ञ करते थे, तप करते थे, दान करते थे, व्रत करते थे ‘श्रीकृष्णार्पणमस्तु’ की भावना से ही सम्पूर्ण व्यवहार सम्पादित करते थे। जैसे छप्पन भोग समर्पण करने का पुण्य होता है, तुलसीदल समर्पण करने का पुण्य होता है, वैसे ही सन्ध्यावन्दन, सूर्योपस्थान, वलिवैश्वदेव, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य करके ‘श्रीकृष्णार्पणमस्तु’ करने का भी पुण्य होता है। ऐसा करने से मनीषियों का मन एकाग्र होता था। जितनी चंचलता सब अग्निहोत्र की हलचल में खत्म हो जाती थी। 7. विद्या-अविद्या का समुच्चयः - विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । (जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अतृतत्त्व देवतात्मभाव = देवत्व प्राप्त कर लेता है।।) प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं (मैं प्रातः हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता हूँ, जो सत्, चित् और आनन्दरूप है। परमहंसों का प्राप्य स्थान है। जो जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है। जो स्पप्न, सुषुप्ति और जाग्रत् अवस्था को नित्य जानता है, वह निष्कल ब्रह्म में ही हूँ। पंचभूतों का संघात शरीर मैं नहीं हूँ।।) |
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