भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 143

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

समोअहं सर्वभेतेषु न मे द्वेष्योअस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या गयि ते तेषु चाप्यहम्।।[1]

(में सब प्राणियों में समान रूप से हूँ। न मेरा कोई द्वेष्य है न कोई प्रिय। जो भक्ति से मुझको भेजते हैं, वे स्वभाव से मुझमें स्थित है और में स्वभाव से उनमें हूँ।)
अर्थात जो भजन करता है, उसी को प्रभु वरण करते हैं। इस तरह शंकराचार्य जी का कहना ठीक है- यह साधक भगवान को वरण करता है। उसी वरण से भगवान प्रसन्न हो करके अपने स्वरूप का अनुभव करा देते हैं। इसका मतलब यह न समझना कि प्रवचन व्यर्थ है, श्रवण व्यर्थ है। स्वाध्याय प्रवचन बड़े महत्त्व के हैं। क्योंकि इनका तत्त्व से सम्बन्ध है। वेद भी भगवान का प्रकाशक है। उपनिषद् भी भगवान का प्रकाशक है। भगवान ही भगवान का प्रकाशक हो सकता है। भगवान का प्रकाशक दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए भगवान् स्वयं प्रकाश हैं। उन्हीं का स्वाध्याय करते रहेंगे, प्रवचन करते रहेंगे तब भगवत्स्वरूप का प्रकाश होगा। तैत्तिरीयोपनिषद् में और सब साधन एक-एक बार हैं, जबकि स्वाध्याय और प्रवचन का आवर्तन बार-बार है-

ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।।
तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।।
शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।।
अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च। अतिथयश्च च स्वाध्यायप्रवचने च।।
मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च।।
प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजापतिश्च स्वाध्यायप्रवचने च।।[2]

एतावता-

वरणं विना केवलेन प्रवचनेन भगवान् न लभ्यः।
वरणं विना केवलया मेधया भगवान् नोपलभ्यते।
वरणं विना केवलेन श्रवणेन भगवान् नोपलभ्यते।
वरणंसहितेन प्रवचनेन तु भगवान् उपलभ्यते।
वरणसहितया मेधया तु भगवान् उपलभ्यते।
वरणसहितेन श्रवणेन तु भगवान् उपलभ्यते।

कहा भी है-

स्वाध्यायसंयमाभ्यां स दृश्यते पुरुषोत्तमः।
तत्प्राप्तिकारणं ब्रह्म तदेतदिति पठ्यते।।
स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमावासेत्।
स्वाध्याययोगसंपत्या परमात्मा प्रकाशते।।
तदीक्षणाय स्वाध्यायश्रक्षुर्योगिस्तथापरम्।
न मांसचक्षुषा द्रष्टुं ब्रह्मभूतस्य शक्यते।।[3]

(वे पुरुषोत्तम स्वाध्याय और संयम के द्वारा देखे जाते हैं, ब्रह्म की प्राप्ति का कारण होने से ब्रह्म ही कहताले हैं। स्वाध्याय से स्वाध्याय के अनन्तर योग का और योग से योग के अनन्तर स्वाध्याय का आश्रय करो। इस प्रकार स्वाध्याय और योग रूप संपत्ति से परमात्मा प्रकाशित होते हैं। ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को मांसमय चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता, उन्हें देखने के लिए स्वाध्याय और योग ही दो नेत्र हैं।)
इस दृष्टि से भगवान् की कृपा से ही भगवान् के स्वरूप का दर्शन होता है।
3. भगवदाराधन की विधि-
भगवद्गुणगण के ज्ञान के ही तत्त्वज्ञों को भी बहुधा शान्ति प्राप्त होती है। व्यास भगवान तो बडे़ तत्त्वदर्शी थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों का निर्माण किया। सम्पूर्ण वेदों का विवरण[4] किया। गीता का भी आविर्भाव उन्होंने किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवद्गीता 9/29
  2. तैत्तिरीयोपनिषद् 1/9
  3. विष्णु, पुराणे, पष्ठेअंशे 6/1-3
  4. व्यास,विस्तार

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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