भागवत सुधा -करपात्री महाराज
समोअहं सर्वभेतेषु न मे द्वेष्योअस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या गयि ते तेषु चाप्यहम्।।[1]
(में सब प्राणियों में समान रूप से हूँ। न मेरा कोई द्वेष्य है न कोई प्रिय। जो भक्ति से मुझको भेजते हैं, वे स्वभाव से मुझमें स्थित है और में स्वभाव से उनमें हूँ।)
अर्थात जो भजन करता है, उसी को प्रभु वरण करते हैं। इस तरह शंकराचार्य जी का कहना ठीक है- यह साधक भगवान को वरण करता है। उसी वरण से भगवान प्रसन्न हो करके अपने स्वरूप का अनुभव करा देते हैं। इसका मतलब यह न समझना कि प्रवचन व्यर्थ है, श्रवण व्यर्थ है। स्वाध्याय प्रवचन बड़े महत्त्व के हैं। क्योंकि इनका तत्त्व से सम्बन्ध है। वेद भी भगवान का प्रकाशक है। उपनिषद् भी भगवान का प्रकाशक है। भगवान ही भगवान का प्रकाशक हो सकता है। भगवान का प्रकाशक दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए भगवान् स्वयं प्रकाश हैं। उन्हीं का स्वाध्याय करते रहेंगे, प्रवचन करते रहेंगे तब भगवत्स्वरूप का प्रकाश होगा। तैत्तिरीयोपनिषद् में और सब साधन एक-एक बार हैं, जबकि स्वाध्याय और प्रवचन का आवर्तन बार-बार है-
ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।।
तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।।
शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।।
अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च। अतिथयश्च च स्वाध्यायप्रवचने च।।
मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च।।
प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजापतिश्च स्वाध्यायप्रवचने च।।[2]
एतावता-
वरणं विना केवलेन प्रवचनेन भगवान् न लभ्यः।
वरणं विना केवलया मेधया भगवान् नोपलभ्यते।
वरणं विना केवलेन श्रवणेन भगवान् नोपलभ्यते।
वरणंसहितेन प्रवचनेन तु भगवान् उपलभ्यते।
वरणसहितया मेधया तु भगवान् उपलभ्यते।
वरणसहितेन श्रवणेन तु भगवान् उपलभ्यते।
कहा भी है-
स्वाध्यायसंयमाभ्यां स दृश्यते पुरुषोत्तमः।
तत्प्राप्तिकारणं ब्रह्म तदेतदिति पठ्यते।।
स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमावासेत्।
स्वाध्याययोगसंपत्या परमात्मा प्रकाशते।।
तदीक्षणाय स्वाध्यायश्रक्षुर्योगिस्तथापरम्।
न मांसचक्षुषा द्रष्टुं ब्रह्मभूतस्य शक्यते।।[3]
(वे पुरुषोत्तम स्वाध्याय और संयम के द्वारा देखे जाते हैं, ब्रह्म की प्राप्ति का कारण होने से ब्रह्म ही कहताले हैं। स्वाध्याय से स्वाध्याय के अनन्तर योग का और योग से योग के अनन्तर स्वाध्याय का आश्रय करो। इस प्रकार स्वाध्याय और योग रूप संपत्ति से परमात्मा प्रकाशित होते हैं। ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को मांसमय चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता, उन्हें देखने के लिए स्वाध्याय और योग ही दो नेत्र हैं।)
इस दृष्टि से भगवान् की कृपा से ही भगवान् के स्वरूप का दर्शन होता है।
3. भगवदाराधन की विधि-
भगवद्गुणगण के ज्ञान के ही तत्त्वज्ञों को भी बहुधा शान्ति प्राप्त होती है। व्यास भगवान तो बडे़ तत्त्वदर्शी थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों का निर्माण किया। सम्पूर्ण वेदों का विवरण[4] किया। गीता का भी आविर्भाव उन्होंने किया।
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