भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 75

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

5. ‘तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’[1]

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वे वेदाँश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वैशरणमहं प्रपद्ये।।[2]

अर्थात जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उसके लिए वेदों का दान करता है, आत्म-बुद्धि को प्रकाशित करने वाले उस देव की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।। जो ब्रह्मा को बनाता है, उसने ब्रह्मा के हृदय में वेदों को प्रेरित किया। विद्यमान वस्तु का प्रेषण हो सकता है। वेद विद्यमान है, अनादिकाल से। अनादि वेद को भगवान से ब्रह्मा के हृदय में प्रेषित किया। इसलिए ब्रह्मा का ज्ञान परमेश्वरानुग्रहसापेक्ष है। इसलिए वह विश्वप्रपंच का कारण नहीं हो सकता। ‘तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये’= ब्रह्मणे। आदि कवि जो ब्रह्मा है, उसके हृदय में जो ब्रह्म (वेद) विस्तृत किया, वही जगत्कारण ध्येय’ है। शंका है- कल के पढ़े हुए वेद को जैसे विद्यार्थी सोकर उठने के बाद स्वयं ही स्मरण कर लेता है। वैसे ही ब्रह्मा सुप्तप्रतिबुद्धन्याय से पूर्वकल्पीय वेद को स्मरण कर सकता है, ईश्वर उसके हृदय में वेद को प्रेषण करे इसकी क्या आवश्यकता है? बोले- ‘मुह्यन्ति यत्सूरयः’= ‘यस्मिन् वेदे सूरयोअपि मुह्यन्ति।’ बड़े-बड़े़ ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न अमलात्मा परमहंस मुनीन्द्र भी वेद के सम्बन्ध में मोहित होते हैं।

किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्।
इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद् वेद कश्चन।।[3]

(वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है, उपासनाकाण्ड में किन देवतओं का वर्णन करती है ज्ञान काण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है- इन बातों को, इस सम्बन्ध में श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।)

मां विधत्तेअभित्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्।
मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिद्धय प्रसीदति।।[4]

(सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्ड में मेरी ही विधान करती है। उपासनाकाण्ड में उपास्य देवतओं के रूप में मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में आकाशादि रूप से मुझमें ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध करती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियों का बस इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझ में भेद का आरोप करती हैं, माया मात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्त में सबका निषेध करके मुझ में ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठान रूप में ही शेष रह जाता हूँ।)

‘वेद किसका विधान करता है, वेद किसका अभिधान करता है, किसका अनुवाद करता है।’ इसका हृदय भगवान कहते हैं, मुझको छोड़कर और कोई जानता ही नहीं। वेद मेरा ही अभिधान करता है, मेरा ही विधान करता है। सब कुछ प्रतिषेध कर मुझे ही अवशेष रखता है, मेरा ही विधान करता है। सब कुछ प्रतिषेध कर मुझे ही अवशेष रखता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तहिं कि ब्रह्मा ध्येयः। ‘हिरण्यगर्भः समर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्’ इति श्रुतेः। नेत्याह। तेन-इति। आदि कवये ब्रह्मणेअपि ब्रह्म वेदं यस्तेने प्रकाशितवान्। ‘यो ब्रह्माणं विधाति पूर्वयो वै वेदाश्च प्रहिणोति तस्मै। तँह देवमात्म बुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वे शरणमहं प्रपद्ये’ इति श्रुतेः। ननु ब्रह्मणोअन्यतो वेदाध्ययनम प्रसिद्धम्। सत्यम्। तत्तु हृदा मनसैव तेने विस्तृतवान्। अनेन बुद्धिवृत्तिप्रवर्त कत्वेन गायत्र्यर्थो दर्शितः। वक्ष्यति हि ‘प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सतीं स्मृति हृदि। स्वलक्षणाप्रादुरभूत्किलास्यतः स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम्’ इति। ननु ब्रह्मा स्वयमेव सुप्तप्रतिबुद्धन्यायेन वेदमुपलभताम्। नेत्याह। यद्य स्मिन्ब्रह्मणि सूरयोअपि मुह्यन्तीति। तस्माद् ब्रह्मणोअपि पराधीनज्ञानत्वात्स्वतः सिद्धज्ञानः परमेश्वर एव जगत कारणम्।’ (श्रीधरी)
  2. (श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/18)
  3. (श्रीमद्भागवत 11/21/42)
  4. (श्रीमद्भागवत 11/21/43)

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21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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