भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 8. श्री जीश्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पाश्र्वे हे पुरुषोत्तम! श्री और लक्ष्मी तुम्हारी पत्नी हैं। दिन और रात्रि तुम्हारे पाश्र्व भाग हैं। आकाश में छिटके हुए सारे तुम्हारे रूप की रश्मियाँ हैं। द्युलोक और पृथ्वी लोक तुम्हारे मुख के विकास हैं। हम जानते हैं कि तुम हमें चाहते हो। इसलिये अवश्य हमारा अभ्युदय और निःश्रेयस चाहो। हमारा लोक, परलोक और सर्वलोक तुम श्रेष्ठ बना दो। सर्वलोक में मेरा आत्मभाव हो जाय।) कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता। अर्थात प्राणी को सदा श्रीकृष्ण सेवा करनी चाहिये। सेवा में भी मानसी सेवा ही सर्वोत्कृष्ट है। चित्त की कृष्णोन्मुखता या कृष्ण में तन्मयता ही सेवा है। मानसी सेवा की सिद्धि के लिये तनुजा और वित्तजा सेवा करनी चाहिये। कायिकी वाचिकी आदि सेवा करते-करते अन्त में मानसी सेवा की योग्यता प्राप्त होती है। ‘विजातीयप्रत्ययनिारासपूर्वकसेव्याकाराकारित मानसीवृत्तिप्रवाह’ ही मानसी सेवा है। जिस प्रकार समद्रोन्मुखी गंगा का अखण्ड प्रवाह चलता है। उसी प्रकार भगवन्मुखी मानसी वृत्तियों का प्रवाह चलना ही मानसी सेवा है। संसार से विमुख होकर मन श्रीभगवान के सम्मुख होकर उन्हीं में रम जाय, यह मानसी सेवा है। मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये। अर्थात भगवच्चरित्र के श्रवणमात्र से सर्वान्तरनिवासी प्रभु की ओर समुद्र की ओर अभिमुख होने वाले अखण्ड, निर्मल, गंगा प्रवाह की तरह निर्मल अन्तःकरण का भक्तिरूप अविच्छिन्न प्रवाह होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमहीधर ने श्री का अर्थ किया है सम्पत्ति-
यथा सर्वजनाश्रयणीयी भवति सा श्रीः। श्रीयतेअनया श्रीः सम्पतिरित्ययर्थः।
उन्होंने लक्ष्मी का अर्थ किया है सौन्दर्य, वह वस्तु जिसके द्वारा कोई वस्तु मनुष्यों के द्वारा लक्षित की जाती है-
लक्ष्यते दृश्यते जनैः सा लक्ष्मीः। सौन्दर्यमित्यर्थः
- ↑ शुक्लयजुर्वेद 41.22
- ↑ श्रीअ् सेवायाम्’
- ↑ भागवत 3.29.11
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज