भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 250

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अष्टम-पुष्प

14. मृद्भक्षण लीला

श्रीवृन्दावन धाम के भक्त लोग कहते हैं- यहाँ ऐश्वर्याधिष्ठात्री थोड़ी सी दूर रहती हैं। पीछे-पीछे रहती हैं। यहाँ तो माधुर्यसारसर्वस्व की अधिष्ठात्री का ही प्राधान्य होता है। इसलिये कहते हैं कि श्यामसुन्दर ने मिट्टी खायी, ग्वाल बालों ने जाकर कह दिया- ‘मैया! तेरे लाला ने मिट्टी खायी है।’ माँ छड़ी लेकर दौड़ी। मदन मोहन श्याम सुन्दर के दानों हस्तारविन्द को एक हाथ में पकड़ लिया और एक हाथ में छड़ी थामते हुए बोली- ‘लाला ठीक कर दूं?’ अनन्त ब्रह्माण्ड के ब्रह्मादिदेव शिरोमणियों को जिनकी माया ठीक करती रहती हैं, उसको नन्दरानी ठीक करने चलीं। माँ ने पूछा- ‘क्यों लाला, तैंने मिट्टी खायी?

भगवान डर गये, सोचा ‘अब मार पड़ेगी, इससे झूठ बोल दूं।’
कहने लगे, ‘माँ मैंने मिट्टी नहीं खायी’ , ‘नाहं भक्षितवानम्ब!’

माँ- ‘‘तेरे ग्वालवाल सब कहते हैं, और तेरा दाऊ भैया भी कह रहा है कि तैने मिट्टी खायी है।’’
श्यामसुन्दर- ‘सर्वे मिथ्याभ्यिाभिशंसिनः’[1]
माँ! सब झूठ बोलते हैं, ये सब पिटवाना चाहते हैं, और तो और दाऊ भैया भी मुझे पिटवाना चाहते हैं। भगवान ने सोचा था कि ऐसा कह देने से अम्बा को विश्वास हो जायगा और वह मुँह खुलवाकर नहीं देखेगी। परन्तु नन्दरानी भी पूरी पक्की थी। उसने कहा, ‘‘अगर ऐसी बात है तो मुह खोल दे’’- ‘‘तहिं व्यादेहि’’ अब तो भगवान फँस गये। अगत्या व्याध से डरे पक्षी की तरह मुख खोल दिया- ‘‘व्यादत्ताव्याहतैश्वर्यः।’’ मुख के खुलते ही उसमें सागर, भूधर, वन, पर्वत दीख पडे़। यशुमति डरी, उसके हाथ से छड़ी गिर गयी, वह बेहोश हो गयी। यहाँ भिन्न-भिन्न ढंग के भाव हैं। ज्ञानी लोग कहते हैं- भगवान झूठ नहीं बोलते। वे सर्वेश्वर, सर्वान्तरात्मा, सर्वशक्तिमान् अनन्तकोटि ब्रह्माण्डाधिपति झूठ काहे को बोलेंगे? उनसे पूछो- कैसे कह दिया, ‘नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः’ वे उत्तर देगें- वे अकर्ता-अभोक्ता नित्यशुद्ध, बुद्ध, मुक्त हैं। वे भला भोक्ता कैसे हो सकते हैं?
जपाकुसुम के सन्निधाम से स्फटिक में लौहित्य की प्रतीत होती है- ‘लोहितः स्फटिकः’ तो भी बुद्धिमान जानता है- ‘स्वच्छः स्फटिकः’ जो जबाकुसुम के सन्निधाम से लौहित्य प्रतीत हो रहा है, वह औषाधिक है। वैसे ही देहन्द्रिय-मन-बुद्धि अहंकार से सर्वद्रष्टा निर्विकार अखण्डात्मा में व्यापारवक्ता की प्रतीति होती है। देहेन्द्रिय मन-बुद्धि-अहंकार की व्यापारवत्ता का ही भान सर्वद्रष्टा सर्वसाक्षी आत्मा में ही रहा है। ‘ध्यायतीव लेलायतीब’[2] भागवत में भी कहते हैं पुरंजनी रोबे तो पुरंजन रोबे, पुरंजनी गावे तो पुरंजन गावे और पुरंजनी सोवे तो पुरंजन सोवे। माने ‘बुद्धौ लेलायन्त्यां आत्मा लेलायतीव’ बुद्धि लेला, खेला, विलास करता हुआ-सा प्रतीत होने लगता है। इसलिये देहेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के सन्निधान से ही आत्मा में कर्तृत्वादि भासित होते हैं। भगवान् सर्वथा निर्विकार हैं, माया को लेकर ही उनमें कर्तृत्वादि का आधान होता है। फिर वे सम्पूर्ण प्रपंच के अभिन्न निमित्तोपादान कारण और अधिष्ठानमूल ही हैं। यही कारण है कि कुछ टीकाकार भगवदुक्तियों को सत्य सिद्ध करते हुए- ‘नाहंभक्षितवान्’ की व्याख्या करते हैं- ‘‘नाहंकिच्चिद् बाह्यं भक्षितवान् सर्व मदन्तस्थमेव’’ अर्थात् ‘मैंने कोई बाहर की वस्तु नहीं खायी, सब कुछ मेरे उदर में ही है।’ परन्तु श्री जीब गोस्वामी आदि का कहना है कि भगवान झूठ बोले ही और उन्हें बोलना ही चाहिये था। बात यह है कि भगवान् की दो प्रधान शक्तियाँ हैं-
एक माधुर्य्याधिष्ठात्री महाशक्ति और दूसरी ऐश्वार्यधिष्ठात्री महाशक्ति। उस समय ब्रज में माधुर्य्याधिष्ठात्री महाशक्ति का साम्राज्य था, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द श्रीमत्रन्दरानी यशोदा के उत्संग में लालित हो रहे थे। ऐश्वर्याधिष्ठात्री महाशक्ति उस समय रुद्धप्रवेशा थी। वह प्रभु की सेवा का अवसर ढूँढ़ रही थी। जब उसने देखा कि हाथ में छड़ी लिये यशोदा अब मेरे प्रभु को, प्राणधन को मारे बिना न रहेगी, तब अपने कौशल से उन्हें बचाने का प्रयत्न किया, यशोदा को श्रीमुख में अनन्त ब्रह्माण्ड दीख पड़े। भावुकों की तो यहाँ तक भावना है कि प्रभु ने यशोदा से अपने बँचने के लिये सिर्फ कह भर दिया था कि ‘‘समक्षं पश्य मे मुखम्’’ वास्तव में वे अपना मुख खोलकर दिखाना नहीं चाहते थे, क्योंकि मिट्टी तो आखिर खायी ही थी। तब मुख खुल कैसे गया? तो मातृकोपरविरश्मि द्वारा उनका मुख कमल स्वयं विकसित हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत 10.8.35
  2. बृहदारण्यक 4.3.7

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
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13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
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20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
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3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
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चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
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पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
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सप्तम-पुष्प
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अष्टम-पुष्प
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11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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