भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 236

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अष्टम-पुष्प

3. लतओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’

हमारे श्री सनातन गोस्वामी जी बोलते हैं-

सन्त्ववतारा बहवः पुष्कनाभस्य सर्वतो भद्राः।
कृष्णादन्यः को वा लतास्वपि प्रेमदो भवति।।[1]

(भले पुष्करनाभ के अनेक एक-से-एक अन्छे अवतार हैं तो लताओं में प्रेम प्रदान करने वाला कृष्ण से अन्य कौन हैं?) सनातन गोस्वामी जी महाराज बड़े सन्त-महापुरुष थे। अपने प्रेम में जो कुछ कहा, वह सब हमारे सिर-माथे। बड़ा आदर करते हैं हम उनका। लेकिन वाल्मीकि की रामायण को देखें तो मालूम पड़ता है कि रामभद्र के वियोग में नदियों का जल खौल उठा। वृक्षों के पुष्प -अंकुर सभी परिम्लान हो गये, भगवान रामचन्द्र के विप्रलम्भ जनित तीव्र ताप में-

अनुगन्तुमशक्तास्त्वां मूलैरुद्धतवेगिनः।
उन्नता वायुवेगेन विक्रोशन्तीव पादपाः।।[2]

अपनी जड़ों के कारण वेगहीन पादप तुम्हारा अनुगमन करने में असमर्थ हैं। वायु वेग से ये उन्नत पादप आपसे लौटने के लिये चीत्कार कर रहे हैं।)

लीनपुष्कर पत्राश्च नद्यश्च कलुषोदकाः।
संतप्तपद्मा: पद्मिन्यो लीनमीन विहंगमाः।।[3]

(नदियों के जल मलिन हो गये हैं उनके कमलों के पत्ते निलीन प्राय हो गये हैं- सूख गये हैं। नदियों-सरोवरों की कमल एवं कमलिनियाँ सन्तप्त हो गयी हैं। उनके मीन एवं विहंगमयगण लुप्त हो गये हैं।)

ममत्वश्वा निवृत्तस्य न प्रावर्तन्त वर्त्मनि।
उष्णमश्रु विमुंचन्तो रामे संप्रस्थिते वनम्।।[4]

विषये ते महाराज महाव्यसनकशिताः।
अपि वृक्षाः परिम्लानाः सपुष्पाड़्कुरकोरकाः।।
उपतप्तोदका नद्यः पल्वलानि सरांसि च।
परिशुष्कपलाशानि वनान्युपवनानि च।।[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अवताराः सन्त्वन्ये सरसिजनयनस्य सर्वतोभद्राः।

    कृष्णादन्यः को वा प्रभवति गोपगोपिकामुक्त्यै।।(श्रीकृष्णकर्णामृतम् 2.85)
  2. वाल्मीकि रामायण 2.45.30
  3. वाल्मीकि रामायण 2.59.7
  4. वाल्मीकि रामायण 2.59.1
  5. श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु विसेषि भयावनु लागा।।

    खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम वियोग कुरोग वियोए।।

    जबतें आई रहे रघुनायकु। तब ते भयउ बन मंगल दायकु।।

    फूलहिं फलहिं विटप विधिनाना। मंजु बलित कर बेलि विताना।।

    सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मलहुँ बिबुध बन परिहरि आए।।

    गुंज मंजु तर मघुकर श्रेनी। त्रिविधि वयारि बहुइ सुख देनी।।

    नीलकंठ कुल कंठ सुक चातक चक्क चकोर।

    भाँति-भाँति बोलहिं बिहंग श्रवन सुखद चितचोर।।(रामचरित मानस 2.137)

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
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15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
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18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
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द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
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3. 'अभिज्ञः' 74
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5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
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12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
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तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
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चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
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पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
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3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
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2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
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11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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