भागवत सुधा -करपात्री महाराज
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणाः-
तत्त्व के साक्षात्कार के लिए सम्पूर्ण प्रयास होते हैं। तत्त्व जिज्ञासा होने के बाद ही श्रवण-मननादि होता है और भगवत्तत्त्व का साक्षात्कार होता है। भगवान व्यास ब्रह्मविद्वरिष्ठ थे। फिर भी उनको शान्ति नहीं मिली। नारद जी महाराज उनके सामने आए[1] नारद जी महाराज ने कहा-‘‘तुमने जो कुछ भी किया है बहुत ऊँचा काम किया है, इसमें सन्देह नहीं। वेदों का व्यास (विस्तार) किया। ब्रह्मसूत्र का निर्माण किया। गीता का निर्माण किया। सब कुछ किया, पर अपेक्षाकृत भगवच्चरित्रामृत का वर्णन कम किया। इसलिए तुम वही करो।’’
व्यास जी वे देवर्षि नारद जी ने कहा- हमारी माता वेदवाही ब्राह्मणों के यहाँ दासी थी। ऋषि-महर्षि उनके यहाँ आये हुए थे। उनकी सेवा में हमारी माता रहती थीं। हम भी उनकी सेवा में रहते थे। उन महात्माओं के सम्पर्क से कुछ धर्मनिष्ठा, भक्तिनिष्ठा हो गई। अन्ततोगत्वा माता को साँप ने काट लिया। माता मर गयी। मैंने सोचा- अच्छा ही हुआ। भगवान ने परम कृपा की, कल्याण ही किया। फिर जंगल में चला गया। एकान्त में भगवान का ध्यान करने लगा।
ध्यायतश्चरणाम्भोजं भावनिर्जितचेतसा।
औत्कण्ठश्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः।।[2]
(भक्ति भाव से वशीकृत चित्तद्वारा भगवान के श्रीचरण-कमलों का ध्यान करते ही भगवत्प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छल-छला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये।)
एकान्त में बड़ी तन्मयता से ध्यान करने पर परात्पर परब्रह्म प्रभु का हृदय मे प्रादुर्भाव हुआ। उनके अनन्त सौन्दर्य, अनन्त माधुर्य, लोकोत्तर सौरस्यामृत का आस्वादन हुआ। ऐसे अद्भुत आनन्द-सम्प्लव में मन लीन हो गया कि लोक-परलोक सब भूल गया। आनन्दसम्प्लव में अन्तःकरण लीन हो गया। क्षणभर में ही वह स्वरूप अन्तर्हित हो गया। उसके बाद मैंने बड़ा प्राणायाम किया, आँख दबाया, नाक दबाया, कान दबाया- बड़ा प्रयास किया, परन्तु प्रभु नहीं आए। दर्शन नहीं हुआ। बड़ा व्याकुल हुआ। आकाश वाणी हुई-
हन्तास्मिअन्मनि भवान्न मां द्रष्टुमिहार्हति।
अविपक्वकषायाणां दुर्दशोअहं कुयोगिनाम्।।
सकृद्यद्दर्शितं रूपमेतत्कामाय तेअनघ।
मत्कामः शनकैः साधुः सर्वान् मुंचति हृच्छयान्।।[3]
(खेद है कि तुम इस जन्म में मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयी हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। हे अनघ-निष्पाप! तेरे हृदय में मुझे प्राप्त करने की उत्कट उत्कण्ठा जाग्रत हो इसलिए मैंने तुम्हें एकबार अपना दर्शन कराया। मुझे प्राप्त करने की इच्छा वाला भक्त धीरे-धीरे हृदय की सम्पूर्ण कामनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है।)
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