भागवत सुधा -करपात्री महाराजइस जन्म में तुम्हें अब मेरा दर्शन नहीं हो सकता। जिनका कषाय परिपक्व नहीं है, अभी खतम नहीं हुआ है, उनके लिए हमारा दर्शन असम्भव है। ‘तो प्रभो, क्यों कर आपने इस माधुर्यामृत का अनुभव करा दिया?’ यदि ऐसा कहो तो सुनो? एकबार जो माधुर्यामृत का रस-विन्दु तुमको अनुभव कराया वह इसलिए कि इसके पाने की उत्कट उत्कण्ठा हो जाय। भगवत्पद प्राप्ति के लिए उत्कट-उत्कण्ठा हो, यही मुख्य बात है। ऊँचा से ऊँचा पुरुषार्थ-सबसे बड़ा पुरुषार्थ यही है। इस सम्बन्ध में वेद मन्त्र हैं- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। (जीव और ईश्वर दोनों एक ही वृक्ष पर साथ-साथ रहने वाले संखा और सुपर्ण-पक्षी हैं। उनमें एक तो-जीव स्वादिष्ट पिप्पल-कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।) मतलब यह कि निराशा मन में जमी हुई है ‘भगवान का मिलन हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वेताश्वतरोपनिषद् 4/6 द्वा=द्वौ, सुपर्णा=सुपर्णौं, सयुजा=सयुजौ, सखाया=सखायौ।
सखायौ=समानाख्यानौ समानाभिव्यक्तिकरणौ एवम्भूतौ सन्तौ। (शांकर भाष्य) - ↑ मुण्डकोपनिषद् 3/1/1, ऋक्0 1/164/80
- ↑ प्रधानमंत्री
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