भागवत सुधा -करपात्री महाराजवेद मंत्र कहता है- ‘नहीं, जीव! तुम इस निराशा पिचाशी को हृदय से निकालो। आशा-कल्पलता को अंकुरित करो। विश्वास करो भगवान मिलेंगे। भाई खरगोश को ऊँट से मिलना हो तो कठिनाई, कहाँ खरगोश कहाँ ऊँट? दोनों का कोई मेल-जोल नहीं। खरगोश का ऊँट से मिलना असम्भव। परन्तु हंस को हंस से मिलना कहाँ असंभव? एक हंस दूसरे हंस से मिले, इसमें क्या कठिनाई? परमात्मा भी शोभन पंखवाले सुपर्ण-पक्षी, जीवात्मा भी सुपर्ण। दोनों सुपर्ण ही तो हैं। सुपर्ण को सुपर्ण से मिलने में क्या कठिनाई? दोनों में साजाज्य सम्बन्ध है। भले एक सम्राट, स्वराट्, विराट् चक्रवर्ती नरेन्द्र हो और एक कमज़ोर है, वराटिका (कौड़ी) पति हो तो भी एक जाति के होने के कारण एक खाट पर बैठने के हकदार हैं। भगवान भी सुपर्ण, जीवात्मा भी सुपर्ण, दोनों में सुपर्ण होने के कारण साजात्य सम्बन्ध है। दोनों सजातीय हैं। सजातीय को सजातीय से मिलने में क्या कठिनाई? इसलिए निराशा पिशाची को निकालो, आशा कल्पलता को अंकुरित करो। विश्वास करो, प्रभु तुम को अवश्य मिलेंगे। यत्न करो। जीव के मन में शंका होती है- ठीक है हम दोनों सजातीय हैं, परन्तु कौरव-पाण्डव भाई-भाई थे, फिर भी लड़ मरे। बाली-सुग्रीव भाई-भाई लड़ मरे। इसलिए हम दानों सुपर्ण हैं, इतने मात्र से मिलने की भावना नहीं होती। श्रुति आश्वासन देती है- ‘‘नहीं-नहीं सखायौ, सखा हैं। भगवान तुम्हारा सखा, तुम भगवान के सखा। दोनों में साजात्य ही नहीं सख्य सम्बन्ध भी है। भगवान तुम्हारे सजातीय और भगवान तुम्हारे सखा। भगवान तुम्हारे पालक सखा और तुम उनके बालक सखा। जीवात्मा अल्पज्ञ-अल्पशक्तिमान बालक-सखा, भगवान सर्वज्ञ-सर्वशक्तिमान पालक सखा।’’ हनुमान जी पूछते हैं- मोर न्याउ में पूछा साई। तुम्ह पूछहु कस नर की नाई।।[1] ‘‘मैं तो अल्पज्ञ हूँ, अल्पशक्तिमान हूँ। मैं तो अपने को भी भूल सकता हूँ, आप को भी भूल सकता हूँ। मैं पूँछूँ-तो-पूँछूँ, आप कैसे नर की नाई पूछते हो। आप तो सर्वज्ञशिरोमणि हैं, आप कैसे भूलते हैं?’’ भगवान जीवात्मा के सजातीय हैं और सखा हैं। सखा का बहुत ऊँचा महत्त्व है। श्रीदामा भगवान के सखा थे। दोनों खेल खेलते थे। तय था जो हार जायगा, उस पर चंडु लेगा। कई बार बेचारा श्रीदामा हारता रहा, घोड़ा बनता रहा, कृष्ण चंडु लेते रहे। खेल ही तो है। कृष्ण हार गये। श्रीदामा कहने लगे ‘‘दाँव दो।’’ श्रीकृष्ण ने कहा-‘‘भैया आज नहीं कल। आज देर हो गई है, गैयों को घेंर लाओ, दाव कल लेना।’’ बोला- ‘‘नहीं, आज। आज तो हम को दाँव मिला है, तुम कल दोगे?’’ दामा ऐसा कहकर बिगड़ गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रामचरितमानस 4/1/8
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