भागवत सुधा -करपात्री महाराज
इस तरह ‘नेति-नेति के द्वारा श्रुति निर्गुण के प्रतिपादन में चरितार्थ होती है। तो जब ब्रह्म निर्गुण ही है तो सृष्टि का अधिष्ठान[1] और अधिष्ठाता ही कैसे बनता है?
श्री मैत्रैय उवाच-
निर्गुणस्याप्रमेयस्य शुद्धस्याप्यमलात्मनः।
कथं सर्गादिकर्तत्त्वं ब्रह्मणोअभ्युपगम्यते।।[2]
भगवन्! जो ब्रह्म निर्गुण, अप्रमेय शुद्ध और निर्मलात्मा है उसको सर्गादि का कर्ता होना कैसे माना जा सकता है?।।)
श्री पाराशर उवाच-
शक्तयः सर्वभावानामचिन्त्यज्ञानगोचराः।
यताअतो ब्रह्मणस्तास्तु सर्गाद्याः भावशक्तयः।।
भवन्ति तपसां श्रेष्ठ पावकस्य यथोष्णता।
तन्निबोध यथा सर्गे भगवान् सम्प्रवर्तते।।[3]
हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय! समस्त भाव पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्त्य ज्ञान की गोचर-विषय होती हैं। उनमें कोई युक्ति काम नहीं देती। अतः अग्नि की शक्ति उष्णता के समान ब्रह्म की भी सर्गादि रचना रूप शक्तियाँ स्वाभाविक हैं। अब जिस प्रकार भगवान सृष्टि की रचना में प्रवृत्त होते हैं, उसे सुनो।।)
2. गुणगण भगवान के उपकारक नहीं-
ज्ञान लिया थोड़ी देर के लिए कि गुण हैं अनन्त और अनन्त गुणगणनिलय भगवान हैं। पर गुणगण भगवान में क्या उपकार करेंगे? गुणगणों की महिमा क्या है? यही कि वे अपने[4] आश्रय में महत्त्वातिशय का आधान करते हैं। ‘आप बडे़ सर्वज्ञ हैं, आप बडे़ शक्तिमान हैं’ तो आपकी महिमा इन गुण गणों से बढ़ जायगी। ऐसे अनन्तकल्याणगुणगण भगवान में महत्त्वातिशय या सौख्यातिशय का आधान कर सकेंगे क्या? तभी कर सकते हैं जब भगवान् का महत्त्व सीमित हों। यदि प्रभु सीमित हों तब तो उनमें महत्त्वातिशयाधान हो सकेगा, परन्तु भगवान निःसीम महान हैं। ‘बृहि वृद्धौ’ धातु का ब्रह्म शब्द है। ब्रह्म का अर्थ है बृहत्- ‘यद् बृहत्, तद् ब्रह्म’। जो बृहत् है, उसी का नाम ब्रह्म है। कितना बृहत्? संकोचक प्रमाण होता तो कह देते इनता बड़ा। ‘सर्वे ब्राह्मणाः भोजयितव्याः’ परन्तु सर्वदेश, सर्वकाल के ब्राह्मणों का भोजन बन नहीं सकता। इसलिए संकोच करना चाहिए। ‘निमन्त्रिता ब्राह्मणाः भोजनीयाः’ निमन्त्रित ब्राह्मणों का भोजन बन सकता है। ऐसे ही यदि यहाँ कोई संकोचक प्रमाण होता तो कहते, इतने बड़े का नाम ब्रह्म। ऐसा कोई संकोचक प्रमाण है नहीं। इसलिए कितना बड़ा ब्रह्म? ‘निरतिशयं यद् बृहत् तद् ब्रह्म।’ वाचस्पति की मति भी जहाँ अतिशयता की कल्पना करते-करते थक जाय, ऐसे निरतिशय तत्त्व को ब्रह्म कहते हैं। तत्रापि[5] ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[6] अनन्त पर समभिव्याहत ब्रह्म। ब्रह्म के साथ ‘अनन्त’, जुड़ा हुआ है। ‘अनन्त’ का अर्थ ‘देश-काल-वस्तु-परिच्छेद शून्य’ है। वह अन्योन्याभाव का प्रतियोगी नहीं, अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी नहीं, प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव का प्रतियोगी नहीं।
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