भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 99

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

तृतीय-पुष्प

श्री सूत जी महाराज ने शकदेव जी की वन्दना की। यह स्पष्ट हुआ कि श्री शुकदेव जी महाराज ही श्रीमद्भागवत के मुख्य वक्ता हैं। श्रीमद्भागवत साक्षात श्री भगवान का स्परूप ही माना जाता है। जिसके घर में श्रीमद्भागवत विराजमान हैं मानों साक्षात ब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर मदन-मोहन प्रभु विराजमान हैं, क्यांकि व्यापक सिद्धान्त है कि प्रकाशक प्रकाश्य से अधिक महत्त्व वाला होता है। जिसके द्वारा प्रकाश्य सार्थक हो, उसकी महिमा स्वाभाविक रूप से है। यद्यपि भगवान स्वयं प्रकाश हैं[1], उनका प्रकाशक कोई दूसरा नहीं हो सकता। उनसे दूसरी वस्तु तो वही हो सकती है, जो परतः प्रकाश्य हो। परतः प्रकाश्य से स्वतः प्रकाश्य प्रकाशित हो ऐसा-संभव नहीं। भगवान स्वप्रकाश हैं। ‘अवेद्यत्वे सति अपरोक्षव्यवहार योग्यत्वम् स्वप्रकाशत्वम्’ ऐसा स्वप्रकाश ब्रह्मात्मा ही सिद्ध होता है। वही वेदन का गोचर[2] न होकर के अपरोक्ष व्यवहार के योग्य है। दुनियाँ में कहा जाता है- ‘दीप भी स्वप्रकाश है’, पर नहीं। दीपक में स्वप्रकाशता वास्तविक नहीं। दीपक स्वजातीय प्रकाशानपेक्ष हैं दीपक दीपकान्तर की अपेक्षा नहीं करता, परन्तु चक्षु न होगा तो दीपक का क्या प्रकाश है? लोक में कहा जाता है- ‘‘सूर्य नारायण भी स्वप्रकाश हैं। सूर्य नारायण के प्रकाश के लिए दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं। लालटेन, गैस आदि की भी अपेक्षा नहीं। बिना दीपक, लालटेन, गैस के बिना सूर्यान्तर के सूर्यनारायण का प्रकाश होता है।’’ लेकिन सूर्यनारायण के प्रकाश के लिए भी आँख चाहिए। आँख न होगी तो सूर्य को कैसे जानोगे? मन न होगा, बुद्धि न होगी तो सूर्य को कैसे जानोगे? इसलिए इनमें स्वप्रकाशता सापेक्ष है निरपेक्ष स्वप्रकाशता नहीं। निरपेक्ष स्वप्रकाशता भगवत्स्वरूप आत्मा में ही है। उसे सजातीय, विजातीय किसी भी प्रकार के प्रकाश की अपेक्षा नहीं, न सजातीय प्रकाश की अपेक्षा, न विजातीय प्रकाश की अपेक्षा। ऐसा स्वप्रकाश आत्मा होता है, सर्वद्रष्टा आत्मा।[3] इसलिए श्रुति कहती है-
विज्ञातारमरे केन विजानीयात्[4]‘जो सबका विज्ञाता है, उसको किससे जानें?’ विज्ञाता क्या है? इस पर श्रुतियाँ कहती हैं- इस परात्पर परब्रह्म भगवान को छोड़कर दूसरा कोई द्रष्टा नहीं, दूसरा कोई श्रोता नहीं, दूसरा कोई मन्ता नहीं, दूसरा कोई विज्ञाता नहीं। द्रष्टा, विज्ञाता, श्रोता किसी प्रकाश की अपेक्षा बिल्कुल नहीं करता- तद्वा एतदक्षरं गार्ग्यदृष्टं द्रष्ट्र श्रुतं श्रोत्रमतंमन्त्र विज्ञातं विज्ञातृ नान्यदतोअस्ति द्रष्दृ नान्यदतोअस्ति श्रोतृ नान्यदतोअस्ति विज्ञात्रेतस्मिन्नु खल्वक्षरे गार्ग्याकाश ओतश्च प्रोतश्चति।[5]
(हे गार्गि! यह अक्षर स्वयं दृष्टि का विषय नहीं, किन्तु द्रष्टा है। श्रवण का विषय नहीं, श्रोता है। मनन का विशय नहीं किन्तु मन्ता है। स्वयं अविज्ञात रहकर दूसरों का विज्ञाता है। इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है, इससे भिन्न कोई श्रोता नहीं है। इससे भिन्न कोई मन्ता नहीं है। इससे भिन्न कोई नहीं है। हे गार्गि! निश्चय इस अक्षर में ही आकाश ओतप्रोत है।)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। (तैत्तिरीयोपनिषद् 2/1)
    अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति (वृहदारण्यको पनिषद् 4/3/9)
    तमेव भान्तमनुभाति सर्वे तस्य भाषा सर्वेमिदं विभाति’, (मुण्डको 2/2/10)
    अस्मात्सर्वस्मात्पुरतः सुविभातम्’ (नृसिंहोत्तर0 2)

  2. विषय
  3. ‘अवेद्योअप्यरोक्षोअतः स्वप्रकाशो भवत्ययम्। सत्यं ज्ञानमनन्तं चेत्यस्तीह ब्रह्मलक्षणम्’ (पंचदशी 3/28) इन्द्रियजन्य ज्ञानविषयत्वा भावेअप्य परोक्षत्वात् स्वप्रकाश इत्यर्थः। अत्रायं प्रयोग:- आत्मा स्वप्रकाश: संवित्कर्मतामंतरेणाअपरोक्षत्वात् संवेदनवदिति। न च विशेषणा सिद्धो हेतु:। आत्मन: संवित्कर्मत्वे कर्मकर्तृ भाव विरोधप्रसंगात्। स्वस्वरूपेण कृतृत्वं विशिष्टरूपेण कर्मत्वमित्यविरोध इति चेत् गमनत्रियायामपि एकस्यैव स्वरूपेण कर्तृत्वं विशिष्टरूपेण कर्मत्वमित्यतिप्रंगात्। न च साधन विकलो दृष्टांत:। संवेदनस्य संवेदनांतरापेक्षायामनवस्थानादिति। तर्कमते घटो घटज्ञानेन भासते घटज्ञानमनुव्यवसायेनेति संवेदनवत्स्वप्रकाशे दृष्टांत: साधनविकल इति चेन्न, ज्ञानस्य ज्ञानांतरेण भासनाभावात्माधनविकल:। नंवात्मन: स्वप्राशत्वेन सिद्धत्वेअपि ब्रह्मलक्षणाभावात् न ब्रह्मत्वसिद्धरित्याशंक्य तल्लक्षणं तरे योजयति- सत्यमिति। 'सत्यंज्ञानमनंत ब्रह्म' इति श्रुत्या यद् ब्रह्मणो लक्षणमुक्त तदात्मनि विद्यत इत्यर्थ:।
  4. बृहदारण्यकोपनिवद् 4/5/15
  5. बृहदारण्येकापानिषद् 3/8/11

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
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18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
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3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
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पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
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3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
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7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
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1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
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7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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