भागवत सुधा -करपात्री महाराजरोमहर्षण के पुत्र रौमहर्षणि थे। मुख्य सूत तो रोमहर्षण ही थे। जिनकी कथा सुनते ही लोगों को रोमांच हो जाता था, रोमांच। इसलिए उन्हें रोमहर्षण कहा जाता था। यही शास्त्रों का निर्णय है कि वे अग्निकुण्डसमुद्भुत थे। सूत शूद्र जाति के नहीं थे। वार्हस्पत्य-हवि और ऐन्द्र हवि दोनों के व्यत्यास से- सम्मिश्रण हो जाने के कारण इनका आविर्भाव हुआ। इसलिए अग्निकुण्डसमुद्भुत होने पर भी इन्हें सूत कहा गया। ब्राह्मणों ने इनमें ब्राह्मणत्व का आधान कर पुराणेतिहास की कथा के लिए प्रेरित किया था- ऐन्द्रे सत्रे प्रवृत्ते तु ग्रहयुक्ते वृहस्पतौ। महाभारत के प्रसिद्ध टीकाकार नीलकंठ ने भावदीप में इस रहस्य का प्रकाश इस प्रकार किया है- वैन्यस्य हि पृथोर्यज्ञे वर्तमाने महात्मनः। 8. श्रीशुक-वन्दना ब्राह्मणों का वचन सुनकर कर उनका रोमांच हो गया। अंग-अंग रोमांच कण्टकित हो गया। आँखें आनन्दाश्रु से भरपूर हो आ’’। उन्होंने अपने गुरु श्री शुकदेव जी महाराज की वन्दना किया कि- यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैयायनो विरहकातर आजुहाव। (पिता श्री के द्वारा हठात उपनयन कर दिये जाने पर भी तदुचित कर्मकाण्ड से रहित शुकदेव परम निवृत्तिपरायण होकर घर से प्रस्थान करते बने। उन्हें इस दिशा में देखकर व्यास जी विरह से कातर होकर पुकारने लगे-बेटा! वत्स! पुत्र! तुम कहाँ जा रहे हो? उस समय वृक्षों ने तन्मय होकर श्री शुकदेव जी की ओर उत्तर दिया था, ऐसे सर्वभूतहृदयस्वरूप श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीपद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे पुराणावतारे 1/33-35)
- ↑ (वायुपुराण प्रक्रियापाद ।1)
- ↑ (श्रीमद्भागवत 1/2/2)
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