भागवत सुधा -करपात्री महाराजस्निग्ध नीले-नीले बादलों के तुल्य है यह। यह नूतन जलधर रुचिवाला, यह दिव्य चित्र है। इसे देखकर तो मेरा मन लोट पोट हो गया है। मुझे धिक्कार है। तीन पुरुषों में मेरी बुद्धि हो गई है। पतिव्रता की एक पुरुष में बुद्धि होती है। हमारी तीन पुरुषों में बुद्धि- में जीवित नहीं रहूँगी। अब मैं अपना प्राण त्याग दूँगी। अब मैं मरना ही श्रेष्ठ समझती हूँ। सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोलीं- ‘‘सखी तुम बड़ी भोली हो। अरी ओ! वह कृष्ण उसी का नाम है। ओ हो हो! उसी के मुखचन्द्र से वेणु गीतामृत है, जिसके प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सान्द्रोन्माद प्रेमपरम्परा का विस्तार होता है। उसी का यह मधुर मनोहर मंगलमय चित्र है।’’ सखियों के ऐसा कहने पर श्रीराधारानी आश्वस्त हुई। कहने का अभिप्राय यह कि कृष्ण नात तो बहुतों को सुनने को मिलता है, पर कहाँ वह चमत्कार होता है? चैतन्य महाप्रभु भी कृष्ण नाम सुनते थे। उनके मन में कितना चमत्कार होता था, श्रीकृष्ण नाम सुनकर? ऐसे ही वेदान्तियों में जो अधिकारी होते हैं, उन्हें महावाक्य- श्रवण के अनन्तर ही प्रत्यक् वैतन्याभिन्न परात्पर परब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार हो जाता है। औरों के सम्बन्ध में तो- उपनिषदः परिपीताः गीता अपि हन्त मति पथं नीताः। (उपनिषदों को घोटकर पी ही गया, गीता भी रट-रटाकर खूब ही तैयार कर लिया। पर खेद है, वह चन्द्रवदनी मन से किसी भी तरह निकलती ही नहीं। करें तो क्या करें?) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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