|
भागवत सुधा -करपात्री महाराज
9. माहात्म्य:-
इन सब दृष्टियों से आया यह कि (निष्कर्ष यह निकला कि) भगवान की आराधना, भगवान के स्वरूप का साक्षात्कार ही सर्व देश काल में मुख्य लक्ष्य है। इसी दृष्टि से श्रीमद्गवत सप्ताह का विधान किया। और तो सब सदा-सर्वदा कठिन है, पर सप्ताह हो सकता है।
कहते हैं कि नारद जी महाराज देश-देशान्तर का भ्रमण करते-करते श्री वृन्दावन धाम आये तो देखा- एक युवती बड़ी सुन्दरी विराजमान है। उसके साथ और कई युवतियाँ हैं। दो व्यक्ति जो कि वृद्ध से हैं, उस युवती के पुत्र सरीखे मालूम पड़ते हैं। वे बडे़ खिन्न जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। उनके मन में प्रसन्नता नहीं है।
नारद जी ने पूछा- ‘तुम कौन हो?, पता लगा - ये मुख्य युवती भक्ति महारानी हैं और ये सब तत्तत्तीर्थों की अधिष्ठात्री शक्तियाँ हैं। कोई गंगा जी महारानी हैं। कोई यमुना जी महारानी हैं। कोई सरस्वती की अधिष्ठात्री देवी हैं। ये सब भक्ति महारानी की सेवा कर रही हैं।
नारद जी ने पूछा- ‘ये कौन हैं दो’, पता चला- ये इन्हीं भक्ति महारानी के पुत्र हैं, ज्ञान और वैराग्य’। ‘भक्ति महारानी खिन्न क्यों हैं?’, खिन्न इसलिए हैं कि माता को अपने पुत्र की प्रसन्नता में ही सुख मिलता है।
एक बार हम कलकत्ते गये तो एक बड़ी बूढ़ी सेठानी हम से कहती हैं- ‘महाराज। हम को वरदान दो। ये बेटे-पोते हम को गंगा पर ले जाकर जला आबें’। मैंने कहा- ‘मरने पर कि जीते जी।’ सेठानी हँसने लगी उसका मतलब यह था- मेरे सामने बेटे- पोते न मरें? मैं उनके सामने मर जाऊँ? यही उसकी भावना थी।
ते माता सदा चाहती है, अपने बेटों का अभ्युदय। ‘कुपुत्रों जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति’ कुपुत्र तो हो भी सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती। भक्ति महारानी खिन्न हैं, वह चाहती हैं कि उनके पुत्र ज्ञान-वैराग्य हृष्ट-पुष्ट हों। तभी वे प्रसन्न होंगी। यद्यपि वे स्वयं श्री वृन्दावन धाम में अच्छी हो गयीं-
ज्ञानवैराग्ययोर्भक्तिप्रवेशायोपयोगिता ।
ईषत्प्रथममेवेति नागंत्वमुचितं तयोः ।।[1]
(पहले पहल भक्ति में प्रवेश करने के लिए ही ज्ञान तथा वैराग्य की कुछ उपयोगिता है। वे भक्ति के अंग न ही हैं और न वे भक्ति के बराबर ही हैं।।)
तात्पर्य यह कि ऐसा ज्ञान, कर्म हो जाय कि उनसे भक्ति आवृत्त हो जाय। भक्ति के साथ ज्ञान भी रहे, कर्म भी रहे, कोई हर्जा नहीं।
|
|