|
भागवत सुधा -करपात्री महाराज
अर्जुन ने विश्वरूप के दाँतों में देखा- भीष्म, द्रोण, कर्ण ये प्रलयंकर भगवान के दाँतों में चिपके हुए हैं, ये योद्धा बचने वाले नहीं हैं, सब मरने ही वाले हैं-
अभी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसड़्घैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथाअसौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरलानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाअंगै।।[1]
(ये सब धृतराष्ट्र के पुत्र एवं सब राजाओं के समूह के साथ भीष्म, द्रोण तथा यह कर्ण और प्रधान योद्धाओं के सहित हमारी सेनायें भी, सभी बडे़ बेग से आपके मुख में प्रवेश कर रही हैं। कराल दाँत वाले विकराल आपके मुख में ये सब योद्धा बड़े वेगे से प्रवेश करते हैं, मुख में प्रविष्ट कोई-कोई विचूर्णित मस्तकों के सहित भक्षित मांस के समान दाँतों में चिपके दिखाई दे रहे हैं।)
यह जगत् भगवान के नित्य-बोध से परिपीड़ित है। वास्तव में हुआ ही नहीं है। जैसे प्रचण्ड मार्तण्ड मण्डल में कभी तमिस्त्रा (रात्रि) हुई नहीं; वैसे विश्व प्रपंच अखण्ड परात्पर परब्रह्म में त्रिकाल में हुआ ही नहीं। फिर भी उसी को वाक्यजा मति (महावाक्यजन्म परब्रह्माकाराकारित वृत्ति) वैसे मारती है, जैसे वासुदेव के द्वारा मारे हुए कौरव-कुल को धनंजय मारता है।
इस तरह से भगवान व्यास जी नमस्कार करते हुए उस परात्पर परमेश्वर की स्तुति करते हैं। यही मंगलाचरण है।
7. ऋषि-सूत-संवाद:-
नैमिषक्षेत्र में ऋषि शौनकादि ने स्वर्गार्थ सहस्रवर्ष का सत्र आरम्भ किया। ‘सहस्र वर्ष’ पर शास्त्रार्थ है। सहस्र वर्ष है या सहस्र दिन? सहस्र दिन मानकर भी विचार किया है। परन्तु पौराणिक दृष्टि से सहस्र संवत्सर भी हो सकता है। सत्रों में प्रायः आहिताग्नि सम्मिलित होते हैं। जो अग्निहोत्री होते हैं। प्रायः एक समान सूत्र के होते हैं। जैसे कात्यायनसूत्र वाले मिलकर बोधायन सूत्र वाले मिलकर या आश्वलायन सूत्र वाले मिलकर ही सत्र करेंगे। समान सूत्रवाले समान शाखावाले लोगों का सत्र होता है। इसलिए अग्निहोत्री होते हैं। ‘प्रातर्हुतहुताग्नयः’[2]प्रातः उठ करके, स्नान-सन्ध्या करके, अग्निहोत्र होम करके सब विचार कर रहे थे। सूत जी भी समासीन थे। जो बहुयजमान कर्तुक यज्ञ होता है, उसे सत्र कहते हैं। एक ही यजमान जिसमें होता है वह तो अग्निष्टोम है, ज्योतिष्टोम है, वाजपेय है, आप्तोर्याम और पौर्णमास है। सत्र में सब लोगों ने अपना-अपना अग्निहोत्र कर्म किया, फिर ब्रह्म चर्चा का समय आया। अश्वमेधादि में भी पारिप्लवाख्यान चलता है। जिसमें सूत हैं, मागध हैं, वन्दी हैं, ऋत्विज हैं, पौराणिक हैं, इनके द्वारा नाना प्रकार के कथानकों का उल्लेख होता है। इसका भी अभिप्राय है। अग्निहोत्र-होम भी चल रहा है।
|
|