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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
3. अभिज्ञः:-
इसका उत्तर देते हैं- अभिज्ञः। जगत् का कर्ता अभिज्ञ होना चाहिए। प्रकृति तो जड़ है। वैसे प्रकृति जगत का कारण हो सकती थी, क्योंकि उसकी अनुगति देखी जाती है। परन्तु सुख-दुःख-मोहात्मिका प्रकृति तो जड़ है। वह अभिज्ञ नहीं है। जगत्कर्ता अभिज्ञ होना चाहिए, सर्वज्ञ होना चाहिए। जगत्कारण ब्रह्म में ही ईक्षितृत्व श्रुत है। जड़ प्रधान में नहीं-
ईक्षतेर्ना शब्दम्[1]
श्रुतिप्रतिपादित न होने के कारण प्रधान जगत कारण नहीं है। क्योंकि ‘ईक्षते’ = तदैक्षत’ इस श्रुति में जगत का कारण ईक्षणकर्ता कहा गया है। जड़ प्रधान में ईक्षण-कर्तृत्व संभव नहीं हैं।
‘तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति तत्तेजोअसृजत’[2](उसने ईक्षण किया- मैं अनेक हो जाऊँ, अर्थात अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ। इस प्रकार ईक्षण कर उसने तेज उत्पन्न किया)।
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किंचिन मिषत्।
स ईक्षत लोकान्नुसृजा इति। स इमाँल्लोकानसृजत।।[3]
(आरम्भ में सृष्टि रचना से पूर्व, एकमात्र आत्मा ही था। उससे अतिरिक्त अन्य कोई स्वतन्त्र वस्तु न थी। उसने ईक्षण किया कि लोकों की रचना करूँ, उसने अम्भ, मरीचि आदि लोकों की रचना की।)
इस तरह परमात्मा ने विचार किया ‘मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।’ तो प्रकृति क्या विचार करेगी। जड़ प्रकृति विचार नहीं कर सकती। ‘जानाति, इच्छति अथ करोति’ यह नियम है- पहले कोई जानता है, जानने के बाद इच्छा करता है, फिर उसे क्रिया रूप में परिणत करता है। जो ज्ञानवान नहीं है, इच्छावान नहीं है, स्वयं क्रियावान नहीं, वह विश्व प्रपंच का निर्माता नहीं हो सकता। प्रधान, ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान नहीं है। इसलिए वह जगत का कारण नहीं हो सकता। परमात्मा सर्वज्ञ-सर्वशक्तिमान-ज्ञानवान-इच्छावान-क्रियावान है, वही विश्व प्रपंच का कारण है। वही जगत का कारण है।
4. ‘स्वराट्’
बोले- स्वराट्[4]। जीव चेतन अवश्य है, परन्तु अल्पज्ञ है। जगत निर्माण के लिए जितना ज्ञान होना चाहिए उतना ज्ञान जीव को नहीं।
शंका हुई- जगत कारण ‘हिरण्यगर्भ’ होगा? उसकी महिमा तो अद्भुत है। उसके जगत कारण होने में भला क्या आपत्ति है- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत[5]वह तो जीवों का स्वामी है। बोले - परन्तु हिरण्यगर्भ को भी ज्ञान परमेश्वर के द्वारा होता है। ब्रह्मा या हिरण्यगर्भ को स्वतः ज्ञान नहीं।
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