भागवत सुधा -करपात्री महाराजनिष्कर्ष यह है कि आकाशादि निखिल प्रपंच का उपादान कारण सद्वस्तु ही है। अन्वय का अर्थ है अनुवृत्ति और व्यतिरेक का अर्थ है व्यावृत्ति। ‘च’ के प्रयोग से निमित्त कारण भी वही है, ऐसा ध्वनित होता है। काल तो उसी परमेश्वर का प्रभाव है, अतः वह पृथक रूप में किसी का कारण नहीं है। इस प्रसंग को इस प्रकार भी व्याख्या की जाती है- प्रलय काल में विश्व -प्रपंच का परमेश्वर में अनुप्रवेश ही अन्वय है। सृष्टिकाल में परमेश्वर से व्यतिरेक विभक्त होकर प्रकट होना, ही ‘इतरतः’ है। व्यतिरेक अर्थात् विभाग। ‘पृथ्वी का जल में, जल का तेज में’ यह अन्वय क्रम है। ‘तेज से जल, जल से पृथ्वी’ यह विभाग क्रम है। इस प्रकार जो जगत का अधिष्ठान कारण है, उसका ध्यान करते हैं। इसकी ऐसी व्याख्या भी है- जिस परमेश्वर के द्वारा कारण रूप में अनुप्रवेश होने से विश्वसृष्टि, जिसके द्वारा फलदाता के रूप में अनुप्रवेश होने से स्थिति और जिसके द्वारा संहारक के रूप में अनुप्रवेश होने से प्रलय होता है, उसका हम ध्यान करते हैं कारण का कार्यसमन्वित होना ही कार्यानुप्रवेश है। ‘इतरतः’ वह परमेश्वर स्त्रष्टव्य, परिपाल्य एवं संहार्य विश्व से स्वरूपतः भिन्न होने पर भी मायाशक्ति से उससे अभिन्न-सा हो गया है। ‘च’ कार से मायाकृत भेद की सूचना मिलती है। प्रकृति (प्रधान) तो अनुगत है जगत में। प्रकृति सुख-दुःख मोहात्मिका है। सारे संसार में सुख-दुःख मोहात्मिका प्रकृति का अन्वय है। प्रकृति में जो सत्त्व है, वह सुखात्मक है; जो रज है, वह दुःखात्मक है और जो तम है वह मोहात्मक है। सारे संसार में सुख-दुःख-माहोत्मकता का समन्वय है। एक ही स्त्री अपने (उसके) पति के लिए सुखदायिनी, सपत्नी के लिए दुःखदायिनी होती है, साथ ही उसे चाहने वाला देवदत्तादि जो कि उसे प्राप्त नहीं कर पा रहा है, उसके लिए वह मोहदायिनी होती है। सांख्यवृद्ध कहते हैं, इसी दृष्टान्त से सब भावों का समझ लेना। हरेक पदार्थ किसी के प्रति सुखात्मक हैं, किसी के प्रति दुःखात्मक और किसी के प्रति मोहात्मक है- प्रकृत्या सह सारूप्यं विकाराणामवस्थितम्। हरेक पदार्थ किसी के प्रति सुखात्मक है, किसी के प्रति दुःखात्मक और किसी के प्रति मोहात्मक है। इसलिए सुख, दुःख, मोह की अनुगति सारे विश्वप्रपंच में है। अतः सुख, दुःख मोहात्मिका प्रकृति ही विश्व का कारण क्यों न हो? यह शंका है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भामती 2/1/4)
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