भागवत सुधा -करपात्री महाराजयदि वेद भी उसी का प्रतिपादन करेंगे तो वे प्रमाण नहीं होंगे, अनुवाद होंगे। दूसरा कारण यह है कि भेद का अधिकरण क्या होगा? भेद या अभेद? भेद में भिन्नता तो है ही, उनका अधिकरण भी होना ही चाहिए। अभेद रूप अधिकरण में प्रतीत होने वाला भेद मिथ्या ही होगा क्योंकि भेद जहाँ नहीं है, वहीं प्रतीत हो रहा है। अपने अभाव के अधिकरण में जो वस्तु दीखती है, वह मिथ्या होती है। वेद यदि भेद का प्रतिपादक है तो उसे मिथ्याभाषी मानना पड़ेगा। श्रुति में भेद की निन्दा है, भेद समझने वाले व्यक्ति को भय होता है। परमार्थ वस्तु को दूसरी मानने पर पशुत्व की प्राप्ति होती है। वह या तो ऐन्द्रियक-विनश्वर होगा, या फिर केवल कल्पना मत्र होगा। इतने बड़े-बड़े महात्माओं के बीच में, विद्वानों के सामने जब वेद- शास्त्रों को युक्ति-युक्त सिद्ध करने के लिए श्री करपात्री जी महाराज की प्रतिभा प्रस्फुटित होती थी तो सभी लोग मुग्ध हो जाया करते थे। श्री करपात्री जी महाराज वेद की अपौरुषेयता पर दृढ़ थे। वेद के कर्ता का कहीं भी वेद में वर्णन नहीं है, वेद अबिच्छिन्न सम्प्रदाय‘-परम्परा से प्राप्त है; अन्य प्रमाणों से अनधिगत एवं अबाधित वस्तु का प्रतिपादक है; ज्ञानात्मक होने से वेद का वास्तविक स्वरूप प्रत्यक्चैतन्याभिन्न ही है। अनात्मा होने पर वेद भी अनात्मकक्षा में निक्षिप्त हो जायेगा। |
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