भागवत सुधा -करपात्री महाराजसत्ययुग में होती थी, वही कलियुग में भी होती है। वैदिक कर्मकाण्ड वैदिक कामना और वैदिक ज्ञान के द्वारा पाशविक कर्म पाशविक कामना और पाशविक ज्ञान का निवारण हो जाता है। वैदिक कर्मकाण्ड से जीवन में उपासना आ जाती है। उपासना से अमृतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। ‘अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विशयाअमृतमश्नुते ।’ यही कारण है कि अेकली अविद्या और विद्या का निषेध किया गया है- अन्धन्तमः प्रविशन्ति येअविद्यामुपासते । (अन्धन्तम मं उनका प्रवेश होता है जो कर्मकाण्ड में रमे रहते हैं। उससे भी और अधिक घोर अन्धकार में उनका प्रवेश होता है जो विद्या में, उपासना में रमे रहते हैं।।) ‘न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्तते अपि तु विधेयं स्तोतुम्’ यहाँ निन्दा का तात्पर्य निन्द्य की निन्दा में नहीं है। निन्दा का तात्पर्य विधित्सित अर्थ की स्तुति में है। विधित्सित अर्थ क्या है? समुच्चय। विद्या एवं अविद्या का समुच्चय। यहाँ कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड के समुच्चय का विधान है। अर्थात् केवल कर्म मत करो, केवल उपासना भी मत करो अपितु कर्मकाण्ड करते चलो और भगवान के अनन्त-अखण्ड निर्विकार रूप में मन एकाग्र करो (हिरण्यगर्भ स्वरूप में)। विद्याअविद्यां च यस्तद्वेदोभय्ँ सह । (जो विद्या और अविद्या का सहानुष्ठान करता है, वह अविद्या के द्वारा मृत्यु का अतिग्रमण कर विद्या के द्वारा परब्रह्म परात्पर परमात्म-तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।।) यदापंचावतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह । जिस समय पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के सहित आत्मा में स्थित हो जाती हैं, बुद्धि भी चेष्टा नहीं करती, उस अवस्था को परम गति कहते हैं।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ईशावास्योपनिषद् 9
- ↑
विद्यया देवलोकः------------(बृहदारण्यक 1/5/16)
कर्मणा पितृलोकः------------(बृहदारण्यकोपनिषद् 1/5/16)
‘न हि शास्त्रविहितं किञ्चिदकर्तव्यतामियात्’, (शांकरभाष्य ईशा.)शास्त्र विहित कोई भी बात अकर्तव्य नहीं हो सकती।
- ↑ ईशावास्योप निषद् 11
- ↑ द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च। (मुण्डक 1/1/4)
( ब्रह्मवेत्ताओं ने कहा है- दो विद्यायें जानने योग्य है एक परा और दूसरी अपरा।) परा च परमात्मविद्या, अपरा च धर्माधर्मसाधनतत्फलविषया (शाकंरभाश्य) तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोअथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरण निरुवत। छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।। (मुण्डक 1/1/5) उसमें ऋक्, यजु, साम, अथर्व, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छनद और ज्योतिष-अपरा है। जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है, वह परा है। उपनिषद्वेद्याक्षरविषयं हि विज्ञानमिह पराविद्येति प्राधान्येन विवक्षितम्। यहाँ पराविद्या शब्द से उपनिषद्वेद्य अक्षर ब्रह्म विषयक विज्ञान विवक्षित है। उपनिषद् की शब्द राशि नहीं ।(मु0 1/1/5. शा. भा.) - ↑ कठोपनिषद् 2/3/10
- ↑ कृत युग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पाबहिं लोग।।(रामचरितमानस 7/102 ख)
कृतयुग सब जोगी विग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ।।
त्रेता विविध जग्य नर करहीं। प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं ।।
कलियुग केवल हरिगुन गाह। गावत नर पाबहिं भव थाहा ।।(रा0 मा0 7/102/1-4)
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