भागवत सुधा -करपात्री महाराजजाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या वृत्तयो बुद्धिजाः स्मृताः। (जाग्रत् अवस्था, स्वप्नावस्था, सुषुप्ति अवस्था, ये बुद्धि की वृत्तियाँ हैं? बुद्धि का चमत्कार हैं। ये बुद्धि वृत्तियाँ जाग्रत बुद्धि वृत्ति, स्पप्नबुद्धिवृत्ति, सुषुप्तिबुद्धि-वृत्ति, जिस अखण्डभान से प्रकाशित होती हैं, वही परात्पर प्रभु पुरुष क्षेत्रज्ञ है।।) प्रातः स्मरामि रघुनाथमुखारविन्दं (जो मधुर मुस्कान युक्त, मधुर भाषी और विशाल भाल से सुशोभित हैं, कानों में लटके हुए चंचल कुण्डलों से जिनके दोनों कपोल शोभित हो रहे हैं; जो कर्ण पर्यन्त विस्तृत बडे़-बड़े नयनों से शोभायमान और नेत्रों को आनन्द देने वाले हैं; ऐसे श्री रधुनाथ जी के मुखारविन्द का मैं प्रातः स्मरण करता हूँ।।) प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं (जो सांसारिक भय को हरने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जो गंगा जी को धारण करते हैं, जिनका वृपभ वाहन है, जो अम्बिका के ईश हैं तथा जिनके हाथ में खट्वांग त्रिशूल है, जो वरद तथा अभय मुद्रा युक्त हैं, उन संसार रोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषधि रूप ‘ईश’ महादेव जी का मैं प्रातः स्मरण करता हूँ।।) ‘श्रवण कथा मुखनाम हृदय हरि[2]’ कानों में भगवान की मंगलमयी कथा हो। मुख में भगवान का मधुर मनोहर मंगलमय नाम हो। हृदय में भगवान की दिव्य मंगलमयी मूर्ति हो, बेड़ा पार हो जाय। फिर क्या चाहिए? इस तरह से प्रातः उठो। स्नान-सन्ध्या करो, सूर्यापस्थान करो। बलिवैश्वदेव करो, अग्निहोत्र करो। इन सबका उद्देश्य रहे भगवदर्पण। जैसे कोई सती साध्वी महाभागा भोजन बनाती है, उसका उद्देश्य रहता है अपने प्राणधन प्रियतम परमप्रेमास्पद पति भगवान की पूजा। ऐसे ही जो भी हमारा यज्ञ है, दान है, ब्रत है, तप है, शुभ कर्म है, सब भगवदर्पण बुद्धि से अनुष्ठित हो तो भगवान का स्मरण बन जाता है। मन इसी में एकाग्र भी हो जाता है। फिर वही बात जो |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ भागवत 7|7|25
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श्रवण कथा मुखनाम, हृदय हरि,
सिर प्रनाम सेवा कर अनुसरु ।
नयननि निरखि कृपा समुद्र हरि,
अगजग-रूप भूप सीतावरु ।। 3 ।।
इहै भगति वैराग्य-ज्ञान यह,
हरि-तोषण यह सुभ ब्रत आचरु ।
तुलसिदास सिव मतु मारग यहि,
चलत सदा सपनहुँ नाहिन डरु ।। 4।। (विनय पत्रिका 205)
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