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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
श्री करपात्री जी महाराज बहुत प्रसन्न हुए। मैं जब हरिद्वार से वृन्दावन के लिये पैदल लौट रहा था तब मेरठ में श्री करपात्री जी महाराज की अध्यक्षता में कोई यज्ञ हो रहा था। श्री गिरधर शर्मा, श्री अखिलानन्द आदि विद्वान वहाँ इकट्ठे थे। पूतना- उद्धार का प्रसंग सुनाने के पश्चात उनके निवास स्थान पर जाकर मैंने वेदों की अपौरुषेयता के सम्बन्ध में प्रश्न किया। मन्त्रों की आनुपेर्वी अनादि एवं नित्य है, यह बात मेरे विश्वास का विषय नहीं हो रही थी। उस समय उन्होंने मुझे पण्डित नकच्छेद राम द्विवेदी द्वारा लिखित एवं हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ‘सनातन-धर्मोद्धार’ ग्रन्थ को देखने का परामर्श दिया। वैसे वह ग्रन्थ मैंने पहले पढ़ा तो था किन्तु इस दृष्टि से नहीं। अन्ततोगत्वा उन्होंने हँसते हुए कहा कि वास्तविक नित्यता तो ज्ञानस्वरूप आत्मा में ही होती है। वेद का यथार्थ परमार्थ आत्मा ही है। और तो सभी अनात्म-पदार्थों की नित्यता आरोपित एवं कल्पित ही है। यह बात मुझे अच्छी तरह जम गई। कभी-कभी उनके अनुग्रह का स्मरणकर हृदय भर आता है। वे काशी के नगवा स्थित ‘गंगा-तरंग’ में ठहरे हुए थे।
मैं ग्यारह बजे दिन में उनके पास पहुँच गया। मैंने उनसे प्रश्न किया कि सभी आस्तिक दर्शनों में यह देखने में आता है कि ईश्वर को पूरा पूरा महत्त्व नहीं दिया गया है। न्याय-वैशेषिक में आत्मा एक द्रव्य है- ज्ञानाधिकरण। उसके दो भेद हैं- जीवात्मा और परमात्मा। योग-दर्शन में ईश्वर समाधि का साधन मात्र है। निरोध दशा में या द्रष्टता के स्परूपा-वस्थान में ईश्वर की चर्चा नहीं की जा सकती। अनुमान से प्रकृति ही सिद्ध होती है, ईश्वर नहीं। पूर्व-मीमांसा में कर्म ही प्रधान है। वही अपूर्व बनकर अपना फल भी दे लेता है। वेदान्त-दर्शन में माया की उपाधि से ब्रह्म में ईश्वररत्व है। ऐसी स्थिति में आप कुछ अपना अनुभव सुनाइये। प्रश्न सुनकर प्रसन्न मुद्रा में वे बैठ गये। चार बजे तक समझाते रहे। उस दिन भिक्षा करने नहीं गये। जैसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र आदि प्रमाण अपने शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों में ही प्रमाण होते हैं; श्रोत्र के द्वारा रूप या नेत्र के द्वारा शब्द की प्रमा नहीं होती, वैसे सभी शास्त्रों के अवान्तर प्रमेय पृथक-पृथक होते हैं और परम प्रमेय अद्वयतत्त्व के साक्षात्कार में वे सहायक होते हैं। वैशेषिक दर्शन भिन्न-भिन्न पदार्थों में जो विशेष है, भेद है, उसका निरूपण करता है। उसका अभिप्राय यह है कि कोई भी पदार्थ केवल विज्ञान मात्र नहीं है। यदि विषय में भेद न हो तो विज्ञान में भी भेद या भेद का संस्कार कहाँ से आयेगा। अतः प्रत्येक पदार्थ में एक विशेष होता है और उसकी प्रमा होती है प्रत्यक्षादि प्रमाणों से। प्रमेय का प्रतिपादन करता है, वैशेषिक दर्शन और प्रमाणों का निरूपण करता है न्याय दर्शन। ये दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं।
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