भागवत सुधा -करपात्री महाराजइनमें आत्मा का भी द्रव्य के अन्तर्गत निरूपण है। द्रव्य, गुणों का आश्रय आत्मा है। उसके दो भेद हैं- आत्मा परमात्मा। उन्होंने अनुमान से परमात्मा की जगत का निमित्त कारण तो सिद्ध किया है। जगत की शून्यता, विज्ञानरूपता, निरीश्वरता एवं नैरात्म्य के खण्डन में इनका अवान्तर तात्पर्य है- इनके भावपदार्थत्व की सिद्धि के द्वारा ‘एकं सत्’ इनका मुख्य प्रतिपाद्य नहीं है। अनुमान के द्वारा ईश्वर सिद्ध किया गया है और वह उपास्य है। प्रायः सभी नैयायिकों ने अपने-अपने ग्रन्थों के आरम्भ में ईश्वर की वन्दना की है और श्री उदयनाचार्य ने तो भक्ति-भाव का उत्तम निरूपण किया है।
सांख्य-दर्शन, आत्मा-अनात्मा का विवेक मुख्य रूप से प्रतिपादित करता है। उसमें तत्त्वों के बाहुल्य का निराकरण करके एक प्रकृति में सबका समावेश कर दिया गया है। यद्यपि मुखतः यह बात नहीं प्रतीत होती, तथापि उपाधिगत कारणों से ही द्रष्टा में भेद की कल्पना की गई है। जन्म-मरण करणादि का भेद दृश्य में है। दृश्यगत भेद से द्रष्टा में भेद की कल्पना स्पष्ट रूप से असंगत प्रतीत होती है, तथापि त्वं पद वाच्यार्थ के शोधन में उपयोगी होने से वह भी ब्रह्मात्मैक्यबोध में सहायक है। मलिन-प्रकृति भोग देती है। |
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